प्रश्न : यदि कोई सेवा में बहुत बिज़ी है, योग के लिए समय नहीं मिलता- तो क्या वह कर्मातीत अवस्था तक पहुंच सकेगा?
दादी जी- मेरा अनुभव कहता है कि जिन कर्मबन्धनों में हम फंसे हैं, उन सबसे फ्री होने के लिए इतने ही श्रेष्ठ कर्म चाहिए। सिर्फ योग ही काम नहीं करता। योग भी तब लगेगा जब श्रेष्ठ कर्म होंगे। योग से हमारे पास्ट कर्मों का हिसाब-किताब भी चुक्तू तब होता है जब अभी श्रेष्ठ कर्म साथ-साथ हैं। योग से बुद्धि अशुद्ध से शुद्ध बनती है। आप निगेटिव छोड़ दो, साधारण व व्यर्थ संकल्प छोड़ दो, शुद्ध सकारात्मक संकल्प करो… इसके लिए टाइम की ज़रूरत नहीं है। कर्म करते भी मेरी बुद्धि शुद्ध है, परमात्मा बाप से जुटी हुई है तो मैं योगी हूँ। अगर मेरी बुद्धि शुद्ध नहीं है, किसी बात का असर है, कोई सोच-विचार व चिंतन है तो मैं योगी नहीं। इसलिए योग में श्रेष्ठ कर्म हमें बहुत मदद करते हैं। कई बार 18 घंटे सेवा करते भी यह फील नहीं होता कि सेवा के कारण मुझे आराम ही नहीं मिलता। सेवा तो मुझे दुआएं देती है। सेवा अगर मेरे जीवन में न होती तो हम जि़ंदा ही नहीं होते। जि़ंदा होते भी तो किस काम के! दूसरों को हमारे द्वारा बल मिले, शान्ति मिले। अगर मुझ आत्मा से अनेकों को सहयोग मिला तो वह सहयोग ही सिद्ध करता है कि हम योगी हैं। हम योग लगाते हैं बाबा से सहयोग लेने के लिए। योगी ही सबका सहयोगी बनता है। सेवा माना सहयोगी बनना, हर बात में हाथ बढ़ाना। बुद्धि की मदद करना, दिल से शुद्ध वायब्रेशन की स्नेह भरी मदद करना। यह योग-सहयोग एक होता जा रहा है। इतनी यज्ञ सेवा सबके सहयोग से हो रही है, किसमें कोई विशेषता है, किसमें कोई। ईश्वरीय परिवार का स्नेह और सहयोग भी हमको योगयुक्त बनाता है। तो हम कर्म और योग को अलग नहीं कर सकते। यज्ञ सेवा करना भी किसके भाग्य में हो। संगठन में रहना भी किसके भाग्य में हो। कभी अपनी जीवन साधारण नहीं समझो। बाबा ने मुझे भाग्य दिया है कर्म करने का। इससे बड़ा योग और क्या है। यह मेरे योग की, शुद्ध संकल्प की कमाल है। दिल सच्ची है तो आत्मा को जिस घड़ी, जिस सेवा की ज़रूरत है वह बाबा करा लेता है। सिर्फ हमें हाँ जी करना है। हम कभी यह कह नहीं सकते कि हमें योग लगाने का टाइम नहीं मिलता, जो सेवा मिलती है मैं उसमें खुश हूँ, बाबा का मेरे पर अधिकार है। मेरी पर्सनल उन्नति-मेरी सच्चाई से, सम्बन्ध से, बुद्धि कहाँ लीक न हो, गम्भीरता, सयानप मेरे पास हो, ईमानदारी मेरे पास हो, इसी से होगी। मैं सेवा छोड़कर योग में बैठ जाऊं, नहीं। मेरा दिल खाता है। जिस सेवा अर्थ आई हूँ, वह मुझे बजानी है। जिस घड़ी जो काम है वह ईमानदारी व सच्चाई से करना भी योग है। तो हर बात में सच्चा सहयोगी बनने वाला ही अपना सुंदर रिकॉर्ड बाबा के पास रखता है। बस बाबा मुझे और कुछ नहीं चाहिए, आपका सहयोग हो और जितना मुझ आत्मा से हो सकता है, श्रेष्ठ कर्म करता चलूँ- इससे कर्मातीत अवस्था बनी पड़ी है। कर्मातीत बनने वालों की भी लाइन लग जायेगी।
प्रश्न : पाप कर्म क्या है?
दादी जी- पाप वह है जहाँ कॉन्सेस खाता है। विवेक खाता है- वह नहीं करना चाहिए। पुण्य वह है जिसमें अपना कॉन्सेस माने कि यह काम ठीक हुआ। मन उल्टा-सीधा दोनों करता है। बुद्धि जानती है यह उल्टी बात है या सीधी बात है, तो भी संगदोष या पुराने संस्कारवश उल्टा कर लेती है। पीछे विवेक खाता है। विवेक किसी को भी छोड़ता नहीं है। बुद्धि प्रभाव में आई, संस्कारों के वश हुई, विवेक नहीं छोड़ता। जब एकांत में होगा, शान्त होगा तो विवेक अंदर मारता है। किसी ने बुरा नहीं किया होगा तो सीधा कहेगा मैंने नहीं किया, मेरा विवेक नहीं कहता। तो जिसमें अपना विवेक खाता है वह काम हमें नहीं करना है। जिस काम के लिए दिल मानती है वह करते चलो।
प्रश्न : दादी मनपर लगाम कैसे लगायें?
उत्तर : अशरीरी, विदेही, निराकारी बनने की मन में लगन है तो जो बाबा के बोल सुनें, वह हमारे जीवन में हों। अन्दर से रिहर्सल(अभ्यास) करें अशरीरी स्थिति, फिर विदेही स्थिति पहले अशरीरी आत्मा हूँ, फिर विदेही फिर निराकारी फिर अव्यक्त फरिश्ता फिर आकारी अगर इसी तरह से हमने अपने आपको इन स्थितियों में रखा तो मन मौज में आ जायेगा। मन खुश हो जायेगा इसलिए भटक रहा था बेचारा मन, इसलिए अशान्त हो रहा था, क्योंकि उसको जो खुराक चाहिए थी, वह नहीं मिली थी और देह, सम्बन्ध दुनिया में फंस गया। अभी उसको छुड़ाया। मन को खुशी की अच्छी खुराक खिलाओ तो खुश होता है। कहते हैं मन घोड़ा है और जो घोड़ों को सम्भालने वाले होते हैं उनको अक्ल होता है कि घोड़ों को कैसे सम्भाला जाता है। घोड़े को खाना ठीक खिलाओ, मालिश अच्छी तरह से करो तो वह खड़ा हो जाता है, उसाको नशा है कि कौन मेरा मालिक है। अगर उसको ठीक खाना नहीं खिलाते हैं, पूरी सम्भाल नहीं करते हैं तो परेशान करता है। तो कईयों का मन परेशान करता है तो कईयों का मन परेशान होता है क्योंकि प्यार से बैठकर उसकी मालिश नहीं की है।