अमृत कलश को प्राप्त करने के लिए आसुरी वृत्ति वालों ने और दैवी वृत्ति वालों ने मिलकर समुद्र का मंथन किया। उसमें से सबसे पहले हलाहल निकलता है, ज़हर निकलता है। और नैचुरल है कि उस ज़हर की जो बदबू है उसके कारण जो देवकुल की आत्माएं हैं वह उसे सह नहीं पाती है और धीरे-धीरे मूर्छित होने लगती है। तब कहा जाता कि परमात्मा शिव ज्ञान के सागर इस संसार में अवतरित होकर वो सारा हलाहल अर्थात् मनुष्य जीवन के अंदर जो ये बुराइयों का ज़हर है, विकारों, विकृतियों का ज़हर है वो स्वीकार कर लेते हैं।
‘शिव जयंती’ या ‘शिवरात्रि’, वैसे देखा जाये तो दोनों ही बहुत उपयुक्त नाम हैं। शिव की जयंंती अर्थात् इस संसार की अज्ञान रात्रि के समय जब चारों ओर घोर अंधकार छाया हुआ होता है ऐसे समय पर परमात्मा शिव का दिव्य अवतरण इस संसार में होता है। शास्त्रों के अनुसार अगर देखा जाये तो शास्त्रों में तीन कथाएं हैं, प्रथम कथा है जिसमें दिखाया गया है कि एक शिकारी शिकार करने जाता है। सारा दिन उसे कोई शिकार प्राप्त नहीं होता, अंधकार होने को आया था तभी उसको एक हिरण दिखाई दिया। पीछा करते हुए जैसे ही उसको मारने जा रहा था कि हिरण ने आकर शिकारी से कहा कि हे शिकारी मैं अपने बच्चों से मिलकर आती हँू। उसके बाद तुम मेरा शिकार कर लेना। अब रात बिताने और जंगली जानवर के भय से वो एक पेड़ पर चढ़ गया,जो बेल पत्र का पेड़ था। हिरण के इंतज़ार में उसे कहीं नींद न लग जाये और नीचे न गिर जाये, इसके लिए उसने बेल के पत्ते तोड़कर नीचे डालना आरंभ कर दिया। ठंडी के दिन होने के कारण कांपते हुए उसके मुख से शिव-शिव निकल रहा था। पेड़ के नीचे एक शिवलिंग था जिसपर वे सारे बेलपत्र पड़ते गये। सुबह होने पर हिरण को आता देख वो नीचे उतरने लगा। उसी समय उसके सामने शिव जी प्रगट हुए और कहा तुमने सारा दिन उपवास किया, सारी रात जागरण और मेरी भक्ति की तथा मेरे ऊपर बेलपत्र भी इतने लाखों चढ़ाये, इसलिए आज मुझसे तुम जो माँगोगे मिल जायेगा। कहा जाता है शिव जी इतने भोले हैं कि उस शिकारी ने उस उद्देश्य से न तो जागरण किया था, न उपवास किया था, न बेलपत्र डाले थे। परंतु भोलेनाथ अंजानेपन में भी किये गये कर्म को सहज स्वीकार कर प्रसन्न होकर वरदान दे देते हैं। ये एक कथा है कि कैसे शिव जी प्रगट होते हैं और भक्तों की भावनाओं को पूरा करते हैं।
दूसरी कथा शास्त्रों में ये आती है कि शिव जयंती माना शिव पार्वती का विवाह, अब जयंती के समय विवाह हो ये कुछ सही नहीं लगता है परंतु फिर भी भक्त इसे बहुत ही धूमधाम से मनाते हैं। और तीसरी कथा ये कि जब समुद्र मंथन हुआ देव-असुर के बीच में और उसमें जब हलाहल निकला तो देवताएं बेहोश होने लगे। तब कहा जाता कि सभी ने शिव जी को पुकारा और शिव जी प्रगट होकर सारा हलाहल अपने कंठ में समा लेते हैं,तो इसको भी शिवरात्रि पर जोड़ दिया गया है कि यही वो दिन है जब शिव जी ने हलाहल को स्वीकार किया था। अब ये तीन कथाएं भक्ति मार्ग में हम सभी ने सुनी हैं लेकिन सही क्या है? आध्यात्मिक अर्थ के आधार से उसको देखा जाये तो वास्तव में मनुष्य आत्माओं ने भले ही अंजानेपन में अपनी समझ के हिसाब से, जिस भी तरीके से, शिव की आराधना की या उपवास किया, जागरण किया, वास्तव में जागरण कोई चौबीस घंटों वाली बात नहीं लेकिन ये सूचक है कि जब इस संसार में घोर अज्ञानता की रात्रि छा जाती है तब परमात्मा शिव का दिव्य अवतरण होता है और ऐसी रात्रि के समय जो अपनी आत्म-ज्योति को जगा लेता है, साथ ही साथ उपवास अर्थात् निंरतर मन का वास प्रभु के साथ अर्थात् मन को उस प्रभु में एकाग्र करते हैं और भक्ति अर्थात् प्रेेम से उस परमात्मा को याद करते हैं और ऐसी जब याद में मग्न स्थिति हो जाती है तो परमात्मा उन भक्तों के हर संकल्प को पूरा करते हैं। दूसरी कथा में कहा कि इस दिन शिव और पार्वती का विवाह हुआ, भावार्थ यही कि जब परमात्मा शिव इस संसार में आते हैं तो जो पार वतन की आत्माएं हैं अर्थात् परमधाम से जो आत्माएं इस संसार में बहुतकाल से बिछड़ी हुई हैं। ऐसी आत्माओं को परमात्मा अपना बना लेते हैं। ईश्वर उन आत्माओं को अपना बनाकर अपने साथ श्रेष्ठ गति में ले चलते हैं। कुछ आत्माओं की मुक्ति हो जाती हैं और कुछ आत्माओं की सद्गति हो जाती है।
तीसरी कथा के अनुसार जो कहते हैं कि अमृत कलश को प्राप्त करने के लिए आसुरी वृत्ति वालों ने और दैवी वृत्ति वालों ने मिलकर समुद्र का मंथन किया। उसमें से सबसे पहले हलाहल निकलता है, ज़हर निकलता है। और नैचुरल है कि उस ज़हर की जो बदबू है उसके कारण जो देवकुल की आत्माएं हैं वह उसे सह नहीं पाती है और धीरे-धीरे मूर्छित होने लगती है। तब कहा जाता कि परमात्मा शिव ज्ञान के सागर इस संसार में अवतरित होकर वो सारा हलाहल अर्थात् मनुष्य जीवन के अंदर जो ये बुराइयों का ज़हर है, विकारों, विकृतियों का ज़हर है वो स्वीकार कर लेते हैं। इसी के सम्बन्ध में शिवरात्रि पर्व पर शिवलिंग के ऊपर धतूरे व आक के फूल चढ़ाते हैं, जोकि बुराइयों का प्रतीक है। जब मनुष्य के जीवन से बुराइयां निकल जाती हैं तब उनके जीवन का शुद्धिकरण हो जाता है और तब उनको अपने समान बनाकर साथ ले चलते हैं अर्थात् वो अमृत कलश प्राप्त होता है और वो अमृतत्व को प्राप्त करते हैं।