मुख पृष्ठब्र.कु. शिवानीसिर्फ 1 सोच से ही बदल जाता है जीवन

सिर्फ 1 सोच से ही बदल जाता है जीवन

देखें आज सारे दिन कौन-सी बातें हुई थीं। क्या किसी भी बात से मन में हलचल आई थी? उसे फिर मन पर लेकर आएं। और उसी परिस्थिति में खुद को देखें कि परिस्थति मेरे अनुसार नहीं है। मैं शांत और स्थिर आत्मा हूँ और ये मेरी शक्ति है। हमेशा खुश रहने वाली सुख स्वरूप आत्मा हूँ। हरेक रिश्ते में कोई कैसा भी व्यवहार करे, मेरा संस्कार सबको प्यार देने वाला हो। मैं प्रेमस्वरूप आत्मा हूँ। इसको मन में रोज़ दोहराना है। मैं शक्तिशाली आत्मा हूँ, भृकुटि के बीच उस सितारे को देखते रहना और साथ-साथ दोहराना है मैं शांत स्वरूप, सुख स्वरूप, प्रेम स्वरूप आत्मा हूँ। मैं सर्वशक्तिमान परमात्मा की संतान हूँ, मैं उनकी ही तरह सर्वशक्तिमान आत्मा हूँ।
हम सब परमात्मा को प्यार से याद करते हैं और कहते हैं- तुम माता-पिता हो हम आपके बच्चे हैं। माता-पिता कैसे हैं- सर्वशक्तिमान हैं, प्यार का सागर हैं, विश्व-कल्याणकारी हैं, क्षमा का सागर हैं, प्यार का सागर हैं, दु:खहर्ता-सुखकर्ता हैं। हम ऐसे परमात्मा के बच्चे हैं, तो बच्चे कैसे होंगे? अगर आपके पास भरपूर धन है तो क्या ऐसा हो सकता है कि आपके बच्चे दुनिया के सामने मांगते रहें कि एक रुपया दे दो? हमारे पिता के पास प्यार का सागर है। वो दाता है, दाता का हाथ कैसा होता है? देने वाला होता है। वो दाता है। हम उसके बच्चे हैं। तो फिर हम कौन हो गए? दाता के बच्चे देने वाले होंगे या मांगने वाले होंगे?
हम में से किस-किस को खुशी चाहिए और हम में से किस-किस को शान्ति चाहिए। फिर हम में से किस-किस को प्यार चाहिए। पूछने पर हमारा हाथ उठ जाता है। हम कह रहे थे दाता के बच्चे देने वाले होंगे। लेकिन अभी चाहिए पूछने पर हम हाथ उठा रहे हैं। शान्ति चाहिए, खुशी चाहिए, प्यार चाहिए तो हमारा हाथ कौन-सी तरफ है? देने वाली तरफ है या मांगने वाली तरफ है? कौन अच्छा लगता है- मांगने वाला या देने वाला? एक सोच जीवन बदल देती है। एक सोच हमने बना ली- खुशी चाहिए। कहीं किसी ने बोला तो हमने भी सुन लिया। सुन लिया तो हमने भी बोलना शुरू कर दिया कि खुशी चाहिए, रिश्तों में प्यार चाहिए, छोटों से सम्मान चाहिए, बड़ों से स्नेह चाहिए। चाहिए…चाहिए… बोलते गए। बाज़ार में दुकानों पर बड़े-बड़े चित्र लगे रहते हैं कि अगर आप ये खरीद लेंगे तो आपके पास खुशी आएगी तो हमने कहा ये चाहिए। ये करते-करते एक सोच बन गई और जितना चाहिए-चाहिए वाली सोच बनी, उतना खुशी बढ़ी या खुशी घटी? आप सिर्फ ये चेक करो- पिछले कुछ सालों में मतलब दो-तीन साल ही देख लो। दो-तीन सालों में खुशी बढ़ी या घटी? चिंताएं बढ़ी या घटीं?
अभी पीछे जब मैं अमेरिका गई थी तब वहां पूछा कि किस-किस को खुशी चाहिए तो सबने हाथ उठा दिया। अधिकतर वो लोग थे जो यहां से गए थे कि वहां खुशी मिल जाएगी। हम कुछ न कुछ करते रहते हैं ये सोचकर कि ये खरीदेंगे तो खुशी मिल जाएगी, वहां चले जाएंगे तो खुशी मिल जाएगी, ये बन जाएंगे तो खुशी मिल जाएगी, वो पा लेंगे तो खुशी मिल जाएगी। यह सब ज़रूरी हैं। हमें यह सोचना चाहिए कि हम कुछ बनेंगे तो देने के लिए, लेने के लिए नहीं।

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