जब तक परमात्मा के लिए भाव नहीं होगा, परमात्मा के घर के लिए भाव नहीं होगा, परमात्मा के बच्चों के लिए भाव नहीं होगा, परमात्मा के एक-एक चीज़ के लिए भाव नहीं होगा, तब तक हम न उस भावना के साथ सेवा कर पायेंगे और न ही दूसरों को प्राप्ति करा पायेंगे।
आपने बहुत सारे ऐसे संत-महात्माओं की जीवनी पढ़ी या सुनी होगी जिन्होंने समाज में व्याप्त अनैतिक व अव्यवहारिक रीति-रिवाज़ों-परंपराओं का पुरज़ोर विरोध किया और कटाक्ष भी किया। कटाक्ष इस बात का कि आप सभी अपने कर्म पर विश्वास कम करते हो लेकिन भगवान और भक्ति को लेकर बहुत सारी भ्रांतियों के बीच जीते रहते हो। उन्होंने हर पल समाज के उन पहलुओं पर ही ध्यान दिया जो अंधविश्वासों और भ्रमों से ओत-प्रोत था। उसको ही ठीक करने में वे तत्पर रहते थे, ये हो गया संत-महात्माओं का एक पक्ष।
आज के समाज को हम लेते हैं, समाज-सुधारकों की फहरिस्त बहुत लम्बी है। सभी अपने-अपने क्षेत्र को लेकर बहुत ज्य़ादा चिंतित भी हैं, लेकिन अध्यात्म का पहलु सबसे अलग है और अद्वितीय है। क्यों है, क्योंकि इसमें ज्य़ादातर समझ किसी चीज़ की आ जाये तो उसके आधार से हम कर्म कर लेते हैं, लेकिन पूरी समझ न होने के कारण हम बुद्धि के स्तर पर इस बात को समझते हैं, लेकिन सबकी भावनाओं को ठेस भी पहुंचाते रहते हैं। जैसे एक संत हुए जो कहते थे, ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’, इसका भावार्थ सबको पता है कि मन अगर शुद्ध है, पवित्र है तो आपको गंगा में स्नान करने की कोई ज़रूरत नहीं है। आप व्यक्ति के भाव को देखो, भाव से उसने अपने आप को उस स्थान पर लाकर खड़ा कर लिया जहाँ बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी नहीं पहुंच पाये। भावना के कारण हम सभी बहुत ऐसी बातें कर जाते हैं जो हम नहीं करना चाहते। उदाहरण के लिए अगर मेरा किसी के प्रति अच्छा भाव नहीं है या अच्छी भावना नहीं है तो वो अगर अच्छी बात भी कहे तो हमें वो बात बुरी लगती है या हम अनसुना कर देते हैं, या किसी के प्रति ईष्र्या का भाव है तो अगर वो सामान्य बात भी सुना रहा होगा तो हमें कमेंट नज़र आता है। हम सोचते हैं कि शायद मेरे लिए ही कहा है। क्यों ऐसा हो रहा है, क्योंकि हमने अपनी समझ तो बढ़ाई अध्यात्म में आने के बाद, लेकिन भाव नहीं बदले। भाव न बदलने के कारण आज हमारी ये दुर्गति है। अगर आप दुनिया में कहीं किसी जगह पर जाकर रहना चाहते हैं और वहाँ पर एक भी व्यक्ति न हो और आपको अकेले रहना हो, आप रह पायेंगे! चाहे कितना ही सस्ता फ्लैट हो, फिर भी आप जब फ्लैट लेते हैं तो देखते हैं कि इस एरिया में कितने फ्लैट बिके। तो आप बताओ कि फ्लैट की कीमत है या व्यक्ति की कीमत है? हमारे भाव व्यक्तियों के प्रति बदल गये और भाव न रखने के कारण आज ये हालत है। अब वो भाव बदल कर जड़-मूर्तियों के लिये हो गये। आप ये बताओ, जो चैतन्य लोगों के साथ रहना दूभर समझता है, उनके लिए ताले लगा देता है, उनके साथ बातचीत करने में उसे विवशता नज़र आती है। तो अगर वो जड़-मूर्तियों के साथ भाव रखेगा तो उससे उसे क्या प्राप्ति होगी। इसीलिए भाव के आधार से भावना हमारी किसी के प्रति बनती है। हम पूरे जीवन ज्ञान-योग करें, लेकिन मनुष्यों के प्रति न भाव बदले, न भावना बदली। रहना आखिर हमको मनुष्यों के साथ ही है, लेकिन अगर भाव और भावना ठीक नहीं होगी तो प्राप्ति कैसे होगी! इसीलिए आज किसी को किसी से कुछ मिल नहीं रहा है, क्योंकि भावना नहीं है। शिव निराकार परमात्मा भी हमको यही सिखाते आ रहे हैं कि सारे ज्ञान-योग का सार भाव ही तो है। हमारा शारीरिक भाव आया, पद का भाव आया, स्थान का भाव आया, रंग-रूप का भाव आया, तो ये सारे भाव हमको गर्त में ले गये और हमारी भावना भी बदलती चली गई। भाव अगर माता-पिता के लिए न हों तो उनके लिए भावना कैसी बनेगी हमारी! क्या हम सेवा कर पायेंगे! ऐसे ही शिव परमात्मा हमें आत्मिक भाव लाने के लिए कहते हैं। जैसे ही आप आत्मिक भाव लायेंगे, सबके लिए भावना बदल जायेगी।
किसी के कर्म, किसी के रंग-रूप पर हम नहीं जायेंगे, हम सिर्फ और सिर्फ वास्तविक रूप से जुड़ेंगे और देवत्व की तरफ बढ़ेंगे। क्योंकि देवतायें सबके लिए बराबर हैं, सबके लिए समान हैं और देवताओं के लिए सब समान हैं। इसीलिए देवी-देवताओं की जड़-मूर्तियों के लिए भी सबमें
भावना है। इसीलिए तुलसीदास ने कहा है, ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी’। इसलिए बिना भाव ज्ञान रूखा-सूखा है। जब ज्ञान के आधार से, समझ के आधार से भावना जुड़ जाती है, उस अध्यात्म में रस बढ़ जाता है। और भावना से सबसे बड़ी चीज़ जो होती है वो है हमारी एकता, एक-दूसरे के प्रति विश्वास, एक-दूसरे के बारे में अच्छा सोचना आदि-आदि बढ़ जाता है।
हमारी ये दृढ़ मान्यता है कि जब तक परमात्मा के लिए भाव नहीं होगा, परमात्मा के घर के लिए भाव नहीं होगा, परमात्मा के बच्चों के लिए भाव नहीं होगा, परमात्मा के एक-एक चीज़ के लिए भाव नहीं होगा, तब तक हम न उस भावना के साथ सेवा कर पायेंगे और न ही दूसरों को प्राप्ति करा पायेंगे। क्योंकि जैसा हम लोगों के लिए भावना कम रखते हैं तो लोग भी हमारे लिए भावना कम रखेंगे, तो प्राप्ति कम होगी। और हम सोचते हैं कि हम इतना कुछ करते हैं, इतना परमात्मा के एक-एक श्रीमत पर चलते हैं, फिर भी हमें प्राप्ति क्यों नहीं हो रही! तो सब कुछ भावना है।