जैसे एक जौहरी के पास परखने की कसौटी होती है जिस पर वो कसकर देखता है कि ये सोना कितने कैरेट का है। उसी प्रकार हम भी अपनी मान्यताओं को कसौटी पर कस करके तो देखें क्योंकि कल अगर सचमुच मेरे सामने भगवान आ भी जायें तो क्या उनको हम पहचान पायेंगे! यह कसौटी निम्न पाँच बातों पर निर्भर करती है…
सबसे पहली बात कि जो सर्वधर्म मान्य हो
जिसको सभी धर्मवाले परमात्मा के रूप में स्वीकार करें उसको ही हम सत्य कहेंगे। ऐसा नहीं कि हिन्दुओं का भगवान अलग है, मुसलमानों व क्रिश्चियनों का भगवान अलग है,नहीं। भगवान एक ही है, और वो सर्व का पिता है। दस बातें हमारे सामने हों और हम कहें कि दसों ही सत्य हैं, ऐसा नहीं हो सकता। यदि दो बातें भी हमारे सामने हों तो भी हम कहते हैं- यह सच है, यह झूठ है। तो परमात्मा के विषय में भी सत्य एक ही होना चाहिए, चाहे नाम भिन्न-भिन्न हों।
जो सर्वोच्च हो, जिसके ऊपर कोई न हो जो सर्व का माता-पिता, बंधु, सखा, गुरु, शिक्षक व रक्षक हो। जिसका कोई माता-पिता न हो, जिसका कोई गुरु न हो, जिसका कोई शिक्षक न हो, जिसकी रक्षा करने वाला कोई न हो, उसको कहेंगे परमात्मा।
जो सर्व से परे हो
तभी तो परमात्मा को अजन्मा कहा जाता है। अजन्मा के साथ-साथ उसने गीता में यह भी कहा है कि मैं कालों का भी काल अर्थात् महाकाल हूँ। मुझे काल कभी खा नहीं सकता। जिसका जन्म होता है उसे कर्म भी करना पड़ता है और उसको कर्म का फल भी भोगना पड़ता है। जो कर्म और कर्मफल के चक्र में आ जाता है उसे हम परमात्मा नहीं कहेंगे, क्योंकि उसने स्वयं कहा है कि मैं अकर्ता तथा अभोक्ता हूँ, न करता हूँ न भोगता हूँ।
जो परे होते हुए भी सब कुछ जानता हो अर्थात् सर्वज्ञ हो
इसी कारण से परमात्मा को ‘त्रिकालदर्शी’ कहा जाता है। जिसके पास तीनों कालों व तीनों लोकों का ज्ञान हो, जो त्रिनेत्री है तथा जो मनुष्यों को भी ज्ञान का दिव्यचक्षु प्रदान करने वाले हैं, उसे हम ‘परमात्मा’ कहेंगे।
जो सर्व गुणों में अनंत हो
जिसकी महिमा के लिए कहा हुआ है कि यदि धरती को कागज़ बना दो, सागर को स्याही बना दो, जंगल को कलम बना दो, और स्वयं सरस्वती बैठकर परमात्मा की महिमा लिखे तो भी उसकी महिमा लिखी नहीं जा सकती है।
तो यह है परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को परखने की कसौटी। जिस कसौटी पर हमें अपनी मान्यताओं को भी कस कर देखना है कि क्या वह सत्य है!