बातें सभी स्पष्ट देनी हैं लेकिन स्नेह के साथ। स्नेहमूर्त होने से उन्हों को जगत् माता के रूप का अनुभव होगा। जैसे माँ बच्चे को भले कैसे भी शब्दों में शिक्षा देती है, तो माँँ के स्नेह कारण वह शब्द तेज़ व कडुवे महसूस नहीं होते। समझते हैं- माँ हमारी स्नेही है, कल्याणकारी है। वैसे ही आप भले कितना भी स्पष्ट शब्दों में बोलेंगे लेकिन वह महसूस नहीं करेंगे। तो ऐसे दोनों स्वरूप की समानता की सर्विस करनी है, तब ही सर्विस की सफलता समीप देखेंगे। कहाँ भी जाओ तो निर्भय होकर, सत्यता की शक्ति स्वरूप होकर, ऑलमाइटी गर्वनमेंट के सी.आई.डी ऑफिसर होकर उसी नशे से जाओ। इस नशे से बोलो, नशे से देखो। हम अनुचर हैं- इसी स्मृति से अयथार्थ को यथार्थ में लाना है। सत्य को प्रसिद्ध करना है, न कि छिपाना है। लेकिन दोनों रूपों की समानता चाहिए। किसको देखते हो वा कुछ सुनते हो तो तरस की भावना से देखते-सुनते हो या सीखने और कॉपी करने के लक्ष्य से सुनते-देखते हो? आजकल की जो भी अल्प सुख भोगने वाली आत्मायें प्रकृति दासी के शो में दिखाई देती हैं, उन्हों के शो को देखकर स्थिति क्या रहती है? यह आत्मायें इस तरीके व इस रीति-रस्म में, प्रकृति की दासी के रूप में स्टेज पर प्रख्यात हुई हैं, इसलिए हमें भी ऐसा करना चाहिए व हमें भी इन्हों के प्रमाण अपने में परिवर्तन करना चाहिए। यह संकल्प भी अगर आया तो उनको क्या कहेंगे? क्या दाता के बच्चे भिखारियों की कॉपी करते हैं? आपके आगे कितने भी पाम्प शो में आने वाली आत्माएं हों लेकिन होवनहार प्रत्यक्ष रूप के भिखारी हैं। इन सभी आत्माओं ने बापदादा के बच्चों से थोड़ी बहुत शक्ति की बूंदों को धारण किया है। आप लोगों के शक्ति की अंचली लेने से, आजकल इस अंचली के फल, प्रकृति दासी के फल रूप में देख रहे हैं। लेकिन अंचली लेने वाले को देख सागर के बच्चे क्या हो जाते हैं? प्रभावित। यह सभी थोड़े समय में ही आप लोगों के चरणों में झुकने के लिए तड़पेंगे। इसलिए स्नेह के साथ सर्विस का जोश भी होना चाहिए। जैसे शुरू में स्नेह भी था और जोश भी था। निर्भय थे, वातावरण व वायुमण्डल के आधार से परे। इसलिए एकरस सर्विस का उमंग और जोश था।