बदलने की आवश्यकता है

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कोई भी पुरुषार्थी सोच सकता है कि जो भी ऊँची-ऊँची बातें हैं, उसकी पहुंच से बाहर हैं और अभी तो वो उससे काफी दूर है। कोई तो ये भी कहेंगे कि ये आदर्श है, ये व्यवहारिक नहीं है, वे ऐसी गगनचुंबी अवस्था में अथवा स्थिति के शिखर पर कैसे पहुंचेंगे। उनका मन जो बार-बार मैला हो जाता है, उस धूल-मिट्टी अथवा कचरे-कीचड़ में कैसे बचा रहे? वे कहेंगे कि उनकी दृष्टि पर तो दूसरों के अवगुणों का चश्मा चढ़ा ही रहता है या उनके दुर्गुण उनकी आँख में धूल के कंकड़ की तरह चुभते ही रहते हैं। आखिर उन्हें आँखें तो खुली रखनी हैं, तब उनकी दृष्टि कैसे निर्मल बनी रहे? ये प्रश्न हरेक के लिए उपयोगी है।
इनके पीछे दृष्टि और वृत्ति को बदलने की चेष्टा है, यह चेष्टा संकेत देती है कि उनकी पुरुषार्थ करने की नीयत तो है। ऐसे लोग उन लाखों-करोड़ों से अच्छे हैं जो अपनी वृत्ति-दृष्टि को बदलने की कामना ही नहीं करते। अपनी हालत खराब कर बैठने के बावजूद भी वे इस खराबी के स्वाभाविक होने की बात करते हैं और तर्क-वितर्क से युक्ति-संगत बताते हैं। ऐसे लोगों का बदलना तब तक असंभव है जब तक उन्हें यह एहसास ही नहीं होता कि हमें स्वयं को बदलना चाहिए। बदलना आवश्यक है, बदलने के बिना हमारी गति ही नहीं है। आज बदलें या कल, बदलने के बिना कोई दूसरा रास्ता ही नहीं है। मन की गहराई से यदि हम बदलना स्वीकार नहीं करेंगे तो परिस्थितियां हमें बदलने पर मजबूर कर देंगी। तब यदि हम न बदले तो फिर हम स्वयं को मनुष्य की कोटि में न समझें।
कुत्ता एक ऐसा पशु है जिसकी पूंछ सदा टेढ़ी बनी रहती है। कहते हैं कि एक मनुष्य ने वर्ष भर कुत्ते की पूंछ को लोहे की नली में सीधा कसकर रखा, उसने सोचा एक वर्ष काफी होता है, अब तो यह पूंछ सीधी हो ही गई होगी। इस दौरान कुत्ता चिल्लाता भी था तो भी उसने उसकी पूंछ पर से नली नहीं हटाई। पर वर्ष बाद जब हटाई तब तो यह देखकर आश्चर्यचकित हुआ कि कुत्ते की पूंछ तो वैसी ही टेढ़ी है! ऐसे ही कुछ लोग बदलना ही नहीं चाहते। उनके बारे में तो कहेंगे कि क्रअल्लाह ही खैर करे!ञ्ज क्रखुदा हाफिज़ उन्हें खौफ-ए-खुदा ही नहीं है।ञ्ज जो धर्मराज से ही नहीं डरते, वे धर्मात्मा लोगों से कहां डरेंगे!
जो बदलना चाहे उनके लिए कल्याणकारी प्रभु ने अनेक विधियां, युक्तियां अथवा उपाय बताये हैं जिनसे उनकी आत्मा में घुसे हुए संस्कार बाहर निकल जाएं और उनका पीछा छोड़ दें। उन सबका तो यहां उल्लेख करना संभव नहीं है, परंतु एक ऐसी बात को यहां हम लिपिबद्ध करना चाहेंगे जो कि किसी अंश में हमारी दृष्टि, वृत्ति और कर्म को विकृत होने से बचा सकती है। वो ये है कि कई बार हम किसी व्यक्ति से किसी दूसरे की निंदा-चुगली सुनकर, शिकायत सुनकर, अफवाहें सुनकर उसे तुरंत मान जाते हैं और यह सोचने लगते हैं, क्रअच्छा, वो व्यक्ति ऐसा निकृष्ट है! हमने तो उसके विषय में कभी ऐसा सोचा ही नहीं था।ञ्ज हम इस बात की जांच नहीं करते बल्कि यह देखकर कि कहने वाला व्यक्ति हमारा घनिष्ठ मित्र है, विश्वास-पात्र है, हमारे निकटतम हैं, हम उस बात को दूसरे व्यक्ति की अनुपस्थिति में मान जाते हैं। गोया हम उसकी पीठ में छुरी घोंपते हैं। चाहे व्यक्ति निर्दोष ही हो, हम दूसरे के कहने में आकर मन ही मन उससे घृणा करने लगते हैं। जिसे हम अच्छा समझते थे, उसे अब घटिया मानने लगते हैं और कई बार तो दूसरों को कहने भी लगते हैं कि क्रअरे, तुम्हें मालूम है कि उस व्यक्ति का तो फलाना से लगाव-झुकाव है। वो झूठा है, ठग है, बेईमान है, वो केवल बाहर का दिखावा दिखाता है और वाचाल है। बाकी उसमें ज्ञान-ध्यान कुछ नहीं है। तुम आगे के लिए उससे बोलना छोड़ दो, उसका संग खराब है। मनुष्य कमर के साथ भारी पत्थर बांधकर पानी में उतरेगा तो डूबेगा ही। उसके संग वाले का भी ऐसा ही परिणाम होगा। सुना, तुम बचकर रहना।ञ्ज जब ऐसी दृष्टि हो जाये तो मनुष्य की अपनी बुद्धि मारी जाती है क्योंकि वो स्वयं अपनी बुद्धि में कंकड़-पत्थर इक_े करने लगता है, गोया अपने ही डूबने की तैयारी करने लगता है। अपने को जि़ंदा जलाने के लिए चिता की लकडिय़ा स्वयं चुनकर लाता है और उनकी सेज बनाता है। अपनी हत्या के लिए अग्नि स्वयं अपने हाथों से लगाता है, उसे किसी करनीघोर ब्राह्मण की आवश्यकता ही नहीं। इस तरह अगर हमने अपने पर ध्यान नहीं दिया तो हमारी स्मृति भं्रस हो जायेगी और जिसकी स्मृति ही भ्रंस हो जाये, तो गीता के महावाक्य हैं, क्रउनकी केवल लुटिया ही नहीं डूबती, उनका तो सर्वनाश हो जाता है।

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