इन्सानियत आखिर है क्या…!!!

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हमें यह देख लेना चाहिये कि यदि हमारा व्यवहार ब्राह्मणकुलोचित अथवा फरिश्तों जैसा है तब तो हमें स्वयं से असन्तुष्ट होना ही नहीं चाहिए क्योंकि तब दूसरे व्यक्तिकी असन्तुष्टता उसके अपने किसी संस्कार-वश हो सकती है। परन्तु हमें इतना महान एवं योग-युक्त बनना चाहिए, हम अपनी योग-शक्ति से दूसरे व्यक्तियों की दृष्टि-वृत्ति में परिवर्तन करके उन्हें भी हम उचित रीति से सन्तुष्ट करें।

हम बहुत बार सुनते हैं कि लोग किसी विषय में कह रहे होते हैं कि वह तो इन्सानियत से भी गिरा हुआ है अथवा वह तो इन्सान भी नहीं है बल्कि पशु है, क्रजंगली जानवर हैञ्ज या क्रबिलकुल ही गिरा हुआ इन्सान हैञ्ज। जब कोई व्यक्ति किसी अन्य के बारे में कह रहा होता है तो उसका क्या भाव होता है?
हमारे विचार में निम्नलिखित छह-सात बातों में से कोई एक बात या एक से अधिक बातें जब कोई व्यक्ति में देखता है तब वह उसके लिये कहता है -क्रक्रउसकी तो बात ही छोड़ दो; वह तो इन्सान ही नहीं है।ञ्जञ्ज
1. निम्नता का व्यवहार
कुछेक व्यक्ति ऐसे होते हैं कि न स्वयं लाभ ले पाते हैं, न दूसरों को लाभ लेने देते हैं। उनका व्यवहार क्रचारे के पात्र पर कुत्ताञ्ज जैसा होता है। वह कोई कार्य स्वयं तो करने में सक्षम होते नहीं परन्तु अपने देखते हुए दूसरों को भी वैसे ही करने नहीं देते जैसे कि कुत्तस स्वयं तो चारा खा नहीं सकता परन्तु गाय पर भी भौंकता है और उसे भी खाने नहीं देता। यदि इन्सान भी ऐसा ही व्यवहार करता है तो वह भी क्रचारे का कुत्ताञ्ज ही जैसा निकृष्ट होता है।
इसका एक प्रकारांतर यह भी होता है कि कुछ लोग किसी दूसरे का कार्य न करते हैं, न किसी दूसरे द्वारा होने देते हैं बल्कि हर बात में अपनी टांग अड़ाते हैं। मान लीजिये कि वे किसी सरकारी पद पर अधिकारी हैं और चाहें तो अपनी लेखनी से किसी का काम कर के उसका भला कर सकते हैं परन्तु वे अपनी जेब से कुछ हानि न होने पर भी लेेखनी द्वारा किसी का भला नहीं करते बल्कि फाईल पर चढ़ कर बैठे रहते हैं। इतना ही नहीं बल्कि यदि दूसरा भी कोई सहयोग देकर जन-हित का कोई काम कराना चाहते हैं तो उन्हें भी रोकते हैं।
2. साँप-नेवले की तरह व्यवहार
कुछ लोग ऐसे होते हैं कि सदा वैर-विरोध करते हैं। जैसे साँप और नेवले की सदा शत्रुता बनी रहती है, वैसे ही उसके मन में भी वैर का विष भरा ही रहता है। किसी प्रयोजन के बिना ही यों ही वे लडऩे और मरने अथवा खाने को दौड़ते हैं। देखने में लगता है कि यों ही अथवा अकारण ही झगड़े करने पर उतारू रहते हैं। यह भी इन्सानियत से गिरा हुआ ही व्यवहार है।
3. सनकी और इन्द्रियों के दास
कुछ लोग ऐसे होते हैं कि सोच-समझ कर, हानि-लाभ सोच कर कार्य नहीं करते बल्कि किसी-न-किसी सनक(पागलपन) के सवार होने पर या इन्द्रियों के वश होने के परिणामस्वरूप वैसा व्यवहार करते हैं। उन्हें शराब की, पान की, सिग्रेट की या अन्य किसी इन्द्रिय की लत पड़ी होती है और उसको पूरा करने के लिये रिश्वत माँगते रहते हैं। पैसा लिये बिना भाई-भतीजे का काम भी नहीं करते। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो सहज प्रवृत्ति के आधार पर ही जीवन जीते हैं जो कि वास्तव में पशुओं के स्तर का जीवन है। या तो किसी न किसी भावावेश अथवा वेग के अधीन होकर कार्य करते हैं। यह भी इन्सानियत के नीचे का स्तर है। ऐसे लोग इन्द्रियलोलुप, जल्दी भड़क जाने वाले और उच्छृंकल होते हैं। काम-वासना का मनोवेग होगा तो किसी की पवित्रता लुटने पर उतारू हो जायेंगे, नाराज़गी होगी तो ऊँचे-ऊँचे और गुस्से से बात करने लगेेंगे, मोह-ममता के वश रोने-चिल्लाने लगेंगे और दूसरे की हानि करने को भी तैयार हो जायेंगे। ऐसे जो इन्द्रियों के दास हों और सनक या वेग के कारण मानसिक सन्तुलन गंवा कर कार्य करने वाले होते हैं, वे भी इन्सानियत के दर्जे से नीचे के माने जाते हैं। वे बे-काबू होकर काम करते हैं। उनका स्वयं पर थोड़ा भी नियन्त्रण नहीं होता।
4. कोई विधि-विधान नहीं
कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके जीवन का कोई विधान या नियम नहीं होता। वे किसी भी सिद्धान्त के अनुसार कार्य नहीं करते। मर्यादा नाम की कोई चीज़ उनके जीवन में नहीं होती। जैसे पशु जब चाहे, सड़क के बीचों-बीच चल पड़ते हैं या लेट जाते हैं या उसे पार करने लगते हैं और इस प्रकार, जंगल के कानून पर चलते हैं, वैसे ही कुछ लोगों के व्यवहार के बारे में हम पहले-से कुछ भी नहीं जान सकते क्योंकि उनका कोई असूल तो होता ही नहीं है। ऐसे लोग भी पाश्विक वृत्ति के होते हैं और इन्सानियत से गिरे हुए होते हैं।
5. झगड़े पर झगड़े
कुछ लोग बात से बात नहीं करते बल्कि हरेक बात को एक झगड़े या फसाद का रूप दे देते हैं। इन्सान तो वह है जो शान्ति और न्याय से बात करे और निर्णय करे। परन्तु कुछ लोग तर्क, न्याय या उचित-अनुचित के भेद को छोड़कर सदा अपने ही पक्ष में निर्णय चाहते हैं। वे दूसरों की कठिनाई या बात के बारे में सुनना नहीं चाहते जैसे जानवर सिंगों या माथे से टकराने लगते हैं। वे भी इसी प्रकार ही जीत-हार का फैसला करना चाहते हैं।
6. स्वार्थ-सिद्धि और हमदर्दी का अभाव
संक्षेप और सम रूप में यही कहना ठीक होगा कि जो व्यक्ति नितान्त अपने ही स्वार्थ की सिद्धि में लगे रहते हैं और दूसरों के प्रति जिनके मन में रंचक भी सहानुभूति नहीं होती वे इन्सानियत के दर्जे से गिरे हुए व्यक्ति हैं।
असन्तुष्टता का यह भी कारण है
अत: कुछ लोग जो असन्तुष्ट होते हैं, वे ऐसे स्वभाव के होते हैं। अपनी ईष्र्या, तृष्णा, भावावेश इत्यादि ही के पीछे लगे रहते हैं और दूसरों का उन्हें कुछ भी ध्यान नहीं रहता। उनकी असन्तुष्टता हमारी ही किसी गलती के कारण हो यह ज़रूरी नहीं है। हमें यह देख लेना चाहिये कि यदि हमारा व्यवहार ब्राह्मणकुलोचित अथवा फरिश्तों जैसा है तब तो हमें स्वयं से असन्तुष्ट होना ही नहीं चाहिए क्योंकि तब दूसरे व्यक्ति की असन्तुष्टता उसके अपने किसी संस्कार-वश हो सकती है। परन्तु हमें इतना महान एवं योग-युक्त बनना चाहिए, हम अपनी योग-शक्ति से दूसरे व्यक्तियों की दृष्टि-वृत्ति में परिवर्तन करके उन्हें भी हम उचित रीति से सन्तुष्ट करें।

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