नेकी करके नदी में डालना, अच्छा कार्य करके उसका यश न प्राप्त करना, किसी का भला करके अपनी महिमा सुनने की चेष्टा का न होना, अपने हाथों से किसी की अच्छाई करके अपनी बड़ाई की चेष्टा न करना, ये बहुत ही उच्च-कुलीन, सुसंस्कृत, साधु-स्वभाव व्यक्तियों का काम होता है।
जीवन में कुछ घडिय़ाँ ऐसी भी आती हैं कि तब हम किसी मुश्किल में फंस जाते हैं अथवा कभी ऐसे भी होता है कि हमें किसी द्वारा सहयोग, परामर्श या प्रोत्साहन की आवश्यकता महसूस होती है। कभी मन टूट चुका हो तो किसी धाढ़स बंधाने वाले, हालचाल पूछने वाले, हिम्मत दिलाने वाले, हौंसले को बढ़ाने वाले, किसी वांछित व्यक्ति से परिचय कराने वाले या अनबन की परिस्थिति में बीच-बचाव करने वाले की ज़रूरत भी महसूस होती है। बहुत कम ही ऐसे लोग होते होंगे जिन्हें जीवन में कभी भी किसी मित्र, सहयोगी, स्नेही या सहानुभूति प्रगट करने वाले किसी भी शुभ-चिन्तक की ज़रूरत न पड़ी हो।
सज्जन स्वभाव वाले व्यक्तियों के स्नेह-सहयोग का महत्त्व
निसंदेह, मनुष्यों का परामर्श, उनका सहयोग अथवा स्नेह आदि होता तो सीमित और अल्पकालीन ही है, तथापि पूर्वोक्त अवसरों पर मानवों के सहयोग, स्नेह, सहानुभूति आदि का भी विशेष महत्त्व और मूल्य तो होता ही है एक ऐसा सहारा, ऐसा मार्गदर्शक, ऐसा सामर्थ्यदाता या प्रीति निभाने वाला, जो हर प्रकार से परिपूर्ण हो और चिर-स्थायी तथा भरपूर सहयोग एवं श्रेष्ठ स्नेह देता हो, तो वह एक परमात्मा ही हैं; परन्तु मनुष्यों में भी कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन में दया, करुणा, सहानुभूति, सहयोग की भावना और मैत्री का संस्कार होता है। ईश्वरीय ज्ञान लेने के बाद हमें एक परमात्मा के सहारे की तुलना में अन्य सब सहारे निस्सार तो महसूस होते हैं, परंतु फिर भी इस जीवन-यात्रा अथवा जीवन-संग्राम में कुछ ऐसे लोग भी सम्बन्ध-सम्पर्क में आते हैं, जो सहायता करते हैं, सहयोग देते हैं और यदि अधिक कुछ न भी कर सकेें तो सच्चे मन से हमारी भलाई की कामना तो करते ही हैं। चाहे हम उनसे मदद करने के लिए आवेदन-निवेदन न भी करते हों, तो भी सज्जन-स्वभाव के वो व्यक्ति अपने सौजन्य से नहीं चूकते। ऐसे लोग भी होते हैं जो कभी किसी को बतलाते भी नहीं और हमें कभी जलाते भी नहीं कि-“जब आप पर बांके दिन आये थे तो हमने आपका फलां काम कर दिया था अथवा आपकी फलां समस्या को सुलझा दिया था।” सच तो यह है कि जब उन सज्जन लोगों से कहा जाता है कि फलां अवसर पर आपने हमारी मदद की थी तो वे हमारा वाक्य पूरा होने से पहले ही कह उठते हैं कि-“अरे भाई, ये क्या कहते हो? हमने तो अपना कर्तव्य किया था और वो भी कोई ऐसी विशेष या बड़ी बात तो नहीं थी, अत: आप उसका वर्णन करके शर्मिन्दा मत करो! ये तो सब परमात्मा की कृपा का फल है। हम छोटे-से जीव किस लायक हैं। अगर हमारे सोचने तथा करने से कुछ होता तो हमारे मन में तो बहुत कार्य करने का संकल्प आता है, तब तो वे सभी संकल्प साकार हो जाते, इसलिये अतीत काल में हमारे द्वारा किये गये अच्छे कार्य की सराहना न किया करो।” ऐसे करने और कहने वाले लोग अपने आप में कितने महान हैं।
संसार में एक ओर तो वे लोग हैं जो दूसरों के काम में विघ्न डालते हैं, उनके लिये मुश्किलें पैदा करते हैं, ईष्र्या करते हुए उनके कार्य में त्रुटियाँ निकालते हैं और उनको हतोत्साहित करते हैं और दूसरी ओर ये सज्जन लोग हैं कि स्वभाव से ही दूसरे की भलाई किये बिना रह नहीं सकते। नेकी करके नदी में डालना, अच्छा कार्य करके उसका यश न प्राप्त करना, किसी का भला करके अपनी महिमा सुनने की चेष्टा का न होना, अपने हाथों से किसी की अच्छाई करके अपनी बड़ाई की चेष्टा न करना, ये बहुत ही उच्च-कुलीन, सुसंस्कृत, साधु-स्वभाव व्यक्तियों का काम होता है। जो अच्छाई के निमित्त बन करके भी इशारा भगवान की ओर करते हैं और इस प्रकार स्वयं भी नम्रचित्त बने रहते हैं और दूसरों को भी भगवान की याद दिलाते हैं, उनका ये गुण एक प्रकार से ईश्वर का वरदान है, क्योंकि मूल रुप में तो यह ईश्वर ही का गुण है। भगवान सबका भला करके भी उसके बदले में किसी से कुछ नहीं चाहते।
परन्तु, संसार में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो समय पर किसी की मदद तो करते हैं परन्तु मन में याद बनाए रखते हैं कि उन्होंने उसकी मदद की थी। वे कभी-कभी उसके मुख से सुनना भी चाहते हैं जिसकी उन्होंने मदद की थी। वे चाहते हैं कि वह कहीं तो उनकी मदद का उल्लेख कर डालें; कहीं तो ये कह दें कि फलां व्यक्ति ने उसकी मदद की थी। कई तो इससे एक कदम और बढ़कर कह भी देते हैं कि – “अरे भाई, तुम्हें याद है कि हमने उस समय पर तुम्हारी मदद की थी जब तुम्हारी नाव मझधार में फंसी थी? तुमने तो हमें भुला ही दिया। खुशी के फलां-फलां अवसर आये तो तुमने हमें बुलाया तक भी नहीं…।”
भलाई करने वालों के साथ हमारा व्यवहार कैसा हो?
इस प्रकार संसार में अनेेक प्रकार के लोग हैं। कई लोग अच्छा काम इसलिए करते हैं कि उनको यश प्राप्त होगा; अन्य कई इसलिये करते हैं कि अच्छा तो करना ही चाहिये। अन्य लोगों का अन्य प्रकार का दृष्टिकोण होता है। कई इसलिये भी हमें सहयोग देते हैं कि समय पर हम भी उनको मदद देंगे। दूसरे कुछ लोग इसलिये भलाई करते हैं कि उनसे हमारा कुछ रिश्ता-नाता है और उसके कारण से उन्हें मजबूर होकर भी हमें सहयोग देना ही पड़ता है। परन्तु, कौन किस भाव से हमारी भलाई करते हैं- ये तो उन व्यक्तियों के व्यवहार और उनकी ही दृष्टि-वृत्ति की बात है। हमारे लिये सोचने की बात तो ये है कि जो कोई भी किसी अवसर पर हमारी कठिनाई की परिस्थिति में हमारा साथ देता है या किसी भी प्रकार से हमारा सहयोगी बनता है तब हमारा व्यवहार उसके साथ क्या हो और उसके प्रति हमारा क्या दृष्टिकोण हो? हम बहुत-से नैतिक मूल्यों और दिव्य गुणों की चर्चा तो करते हैं और बहुत-सी बुराइयों को छोडऩे के लिये भी कहा करते हैं परन्तु जो कोई भी कठिनाई के दिनों में, हमें पूर्वोक्त किसी भी प्रकार की सहायता देता है, उसके प्रति हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिये- क्या हम उसके इस गुण की ओर ठीक तरह ध्यान देते हैं? जबकि हमें यह कहा गया है कि अपकार करने वालों पर भी उपकार करें तो उपकार करने वालों के प्रति हमारा व्यवहार कैसा हो?