वास्तव में साधना- अपने ऑरिज़नल स्वरूप में स्थित रहना है…

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जब तक एक्शन ठीक नहीं करते हैं ना तो कहते हैं ना फिर से, फिर से तो आत्मभिमानी बनने का प्रथम पार्ट जब तक परफेक्ट हम नहीं पढ़ते हैं तब तक रोज़ याद करना और कराना ज़रूरी है। हमारी वास्तविकता ये है।

मधुबन में हम नैचुरल योगी बन सकते हैं। बाबा की तपोभूमि, कर्मभूमि तो बाबा की याद सहज आती है। एक मैंपन और मेरापन चाहिए वो कौन-सा मैंपन और मेरापन? मैं आत्मा और मेरा बाबा। ये मैंपन तो डेवलप करना है, लेकिन अच्छी रीति धारण करना है। क्योंकि जितना ज्य़ादा बाबा से अच्छी तरह से जुड़ेंगे उतना ऑटोमेटिक और सबसे डिटैच होते जायेंगे। यहाँ से इस दुनिया से देह सम्बन्धों से डिटैच होना है। और जितना बाबा से जिगरी सच्चा प्यार उतना बाबा से योग लगेगा। बाबा ने एक बार पीस ऑफ माइंड के जो गैस्ट आये थे विदेश से उनको यही मैसेज दिया था कि ‘गॉड फादर’ कहते हो परन्तु ‘गॉड इज़ माई फादर’ कहो। जहाँ अपनापन है वहाँ याद सहज है। याद का आधार प्यार। जितना बाबा से जिगरी प्यार, अपनापन, मेरापन अनुभव है सबको, अपने के लिए, ‘मेरे’ के लिए सबकुछ कुर्बान करते हैं। जिस मेरे में दुनियावी रीति से, दैहिक रीति से, भौतिक रीति से कुर्बान होते हैं उसमें कोई प्राप्ति ही नहीं थी, लेकिन फिर कितने कुर्बान जाते हो, प्रवृत्ति मार्ग में तो अनुभव है ना! बच्चों के लिए, पति के लिए, परिवार के लिए, अपने लिए भी इतना नहीं सोचते। खुद न खायेंगे-पीयेंगे,मौज मनायेंगे, बच्चों के लिए, परिवार के लिए इतना मेरापन बाबा के लिए क्यों नहीं आता है? अपने आप में देखना है, पूछना है अपने आप से। जैसे-जैसे पुरुषार्थ करते जाते हैं और अवस्था बनती जाती है फिर वो प्यार बाबा के लिए बढ़ता जाता है,
अनुभव होता जाता है।
देह अभिमान का मैंपन और मेरापन समाप्त करना है, क्योंकि प्रैक्टिकल रोल में, जीवन में सबसे ज्य़ादा यूज़ होने वाला शब्द कौन-सा है- मैंपन और मेरापन। जब देह समझते थे तो वो देह अभिमान वाला मैंपन और मेरापन आया।
अब एक भी मुरली ऐसी नहीं होगी। जिसमें अनेक बार अपने को आत्मा समझने के लिए बाबा ने ना कहा हो। रोज़ बार-बार बाबा कहते हैं, हम समझते हैं कि ये कॉमन प्वांइट है। मुरली में और कोई प्वाइंट याद नहीं होगी तो ये तो कह ही देंगे कि आज बाबा ने कहा कि अपने को आत्मा समझकर बाबा को याद करो। क्योंकि हमें पता ही है कि ये बात तो बाबा ने कही ही है। परन्तु ये मोस्ट इम्पोर्टेन्ट प्वाइंट है इसीलिए बाबा बार-बार कहते हैं। जब तक नैचुरल आत्म अभिमानी न बनें तब तक बाबा कहते रहते हैं। जब तक एक्शन ठीक नहीं करते हैं ना तो कहते हैं ना फिर से, फिर से तो आत्मभिमानी बनने का प्रथम पार्ट जब तक परफेक्ट हम नहीं पढ़ते हैं तब तक रोज़ याद करना और कराना ज़रूरी है। हमारी वास्तविकता ये है। हम आत्मा हैं, और वो भी कौन-सी आत्मा? शुद्ध आत्मा, सत्य आत्मा, शांत आत्मा, ये हमारी रियलिटी है। नैचुरल आत्म भान होना चाहिए पर द्वापर कलियुग में जो रोल प्ले किया देह भान का तो देह भान नैचुरल हो गया। इसलिए हम विशेष अभ्यास करते हैं। कईयों को होता है कि योग में क्या करना है बस वही रिपीट करते रहना है। बाबा शांति का सागर, मैं शांत स्वरूप। रिपीट नहीं करना है। साइलेंस में बैठकर खुद की रियलिटी खुद को रियलाइज़ करानी है। ताकि ये पक्का हो जाये कि मेरी ऑरिजिनलिटी पवित्रता है, शांति है, आनंद है, और विशेष अभ्यास करने से फिर वो अवेयरनेस बन जाती है।
एक नैचुरल जागृति हमारी रहती है कि मेरी अपनी वास्तविकता क्या है। तो जो रॉन्ग बातें बुद्धि में बैठी थी कि नहीं मेरी आदत ऐसी है, मेरा नेचर ऐसा है, वो निकल जायेगा। दुनिया में तो वो ही कहते हैं ना कि कुत्ते की पूंछ टेढ़ी की टेढ़ी रहती है। कुछ भी करो वो सीधी नहीं होती। ऐसे इंसान के संस्कार नहीं बदलते। ऐसा मानते हैं ना कि रस्सी जलेगी पर बल नहीं टूटेगा। तो नेचर के लिए वो ऐसे समझते हैं लेकिन नेचर का ज्ञान ही गलत है। कि इनकी नेचर ऐसी है। परन्तु बाबा ने हमें ये सनातन सत्य बताया कि भल वैरायटी रोल्स हम प्ले करते हैं परन्तु हम सबके अन्दर एक कॉमन कोड है वो है हमारी ओरिज़नल नेचर कि हरेक आत्मा ओरिज़नली शुद्ध है, शांत है। तो जब भी मैं शब्द बोलते हैं मुख से न बोलें लेकिन मन में ये अवेयरनेस ज़रूर आये कि मैं आत्मा हूँ।
दादी रतनमोहिनी हमें बताती कि घंटों हम इसी नशे में बैठे रहते थे कि मैं शुद्ध आत्मा हूँ। शुरू में हमें बड़ा लगता था कि एक ही बात में घंटों कैसे बैठे रहते थे! तो जैसे-जैसे हम शुद्ध होते जाते हैं अब अनुभव होता है कि हमें अपने शुद्ध स्वरूप में कितना आनंद अनुभव होता है। भक्ति में आप देखो जिन सन्यासियों के जीवन को शुष्क माना जाता है उन सब सन्यासियों के नाम क्या हैं? शिवांनद, चिदानंद, निजानंद, स्वरूपानंद आनंद ही आनंद। फिर मंथन किया महसूस हुआ कि स्व स्थिति में आत्मा भान में कितना आनंद अनुभव होता है। और वो अपनी आंतरिक स्थिति का सुख और आनंद जब हम अनुभव करते हैं तो फिर हमें और अल्पकाल की प्राप्ति मान, शान, महिमा, उसकी इच्छा ही नहीं होगी ही नहीं। तो वास्तव में साधना तो ये ही है।

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