सहयोग देने वाले व्यक्ति का हम सम्मान करें

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जिसके मन में सहयोगियों के प्रति एहसान नहीं होगा, वह न तो स्वयं सहयोगी बन सकता है, न योगी क्योंकि वह प्रीति की रीति को निभाना ही नहीं जानता। बुरों के साथ भलाई करने की बात तो दूर रही, जिन्होंने उसके साथ भलाई की, वह तो उनके साथ भी भलाई करना नहीं जानता, तब भला उसके व्यवहार में वो सज्जनता, सौष्ठव(सुन्दरता) अथवा श्रेष्ठता कैसे आ सकते हैं?

सोचने की बात है कि जब हम मुसीबतों से घिरे थे तब यदि किसी ने हमारी मुसीबत को हल्का किया, जब हम घटाटोप अन्धेरे से घिरे थे, तब किसी ने मोमबत्ती जगाकर रास्ता दिखाया था, जब हमारा मन कभी टूट चुका था तब उस घड़ी किसी ने हममें एक नया उत्साह फंूक दिया और हम अपनी समस्याओं से जूझने के लिए तैयार हो कर खड़े हो गये या अन्य किसी भी प्रकार से हमारे आड़े-दिनों में हमें सहायता दी तो क्या इसे भुलाना इन्सानियत है? ये ठीक है कि हम गुण एक परमात्मा के गाते हैं और हमारा पूर्ण कल्याण करने वाला वह एक परमपिता ही है और दूसरे सब तो असमर्थ जीव हैं। तब क्या इसका यह अर्थ है कि हम किसी द्वारा की हुई भलाई को भुला दें? जिसने हमें समय पर जैसा भी सहयोग दिया, उसका कई गुणा अधिक न सही, क्या हम उसका थोड़ा भी एहसान न मानें? क्या सहयोग देने वाले व्यक्ति का हम सम्मान न करें, उसके प्रति हमारा थोड़ा भी कृतज्ञता का भाव न हो? हमारे मन में उसके प्रति धन्यवाद का रिंचक भी भाव न हो? क्या ऐसे स्वभाव को हम मानवता का चिन्ह मानेंगे? हम सभी के जीवन का अनुभव तो यही कहता है कि हमें सहायता, सहारा या सहयोग देने वाले व्यक्ति का एहसान मानना चाहिये। परन्तु देखा गया है कि ऐसे भी कुछ धृष्ट(ढिठ) और कठोर स्वभाव के लोग होते हैं जो एहसान फरामोश होते हैं। कोई उनके साथ कितनी भी भलाई कर दे, वो उसे अपना अधिकार मानते हैं और उसके प्रति शुक्रगुज़ार नहीं होते। यदि भलाई करने वाले व्यक्ति पर कभी आ बनी हो या उसके कुछ टेढ़े दिन आये हों, उसकी शक्तियाँ, साधन और स्रोत क्षीण होने लगे हों, तो वे उसको कभी पूछते तक नहीं। वे सोचते हैं कि–“”यदि उसने हमसे कोर्ई भलाई की थी तो इसमें बड़ी बात क्या है? अपने अच्छे कार्य से तो उस व्यक्ति ने अपना भाग्य बनाया है”, वे कहते हैं कि- ”अगर हमारे बाप ने, बड़े भाई ने, पड़ोसी ने, साथ कार्य करने वाले व्यक्ति ने, किसी सम्बन्धी ने कुछ हमें फायदा पहुँचाया भी हो तो इसमें एहसान की क्या बात है? यदि हमें किसी ने जीवन में सफलता के लिये कोई राय दी, जिस समय हमारे भाग्य की नैया डूब रही थी, उस समय हमें सम्भाल लिया, तब उसने अपना कत्र्तव्य ही तो किया….।” क्या इस प्रकार की विचारधारा वाले लोग नैतिकता एवं सद्व्यवहार की सीढ़ी पर ऊपर चढ़ सकते हैं? क्या वे योगी बन सकते हैं अथवा “महात्मा” कोटि के हो सकते हैं?

योगी नहीं कूटनीतिज्ञ
ऐसे लोग राजनीतिज्ञ तो हो सकते हैं, वे योगी नहीं हो सकते क्योंकि योगी जीवन के लिये दो गुणों का होना आवश्यक है। यदि कोई व्यक्ति परमात्मा के एहसानों को ही न मानें, वह सच्चे दिल से परमात्मा का शुक्रिया ही न करे तो उस श्रद्धाहीन, भावना-विहीन, हृदय-रहित व्यक्ति का योग लग ही नहीं सकता। योगी की तो ऐसी स्थिति होती है कि वो अपना सब-कुछ परमात्मा को समर्पित कर देता है; अपने पास कुछ रखता ही नहीं हैं क्योंकि वह ऐसा मानता है कि परमात्मा ने उसे विकारों की दलदल से निकाला है। उसे सत्यता की राह दिखाई है, बुराइयों का सामना करने के लिये उसमें प्रोत्साहन भरा है, उसकी निर्बल आत्मा में शक्ति का संचार किया है, उसकी काया-कल्प कर दी है, मूर्छा से उसे जगाया है, उसे डूबने से बचाया है और इसलिये वह इतना भाव-विभोर होता है, वो सोचता है कि यदि सब-कुछ परमात्मा पर न्यौछावर कर दिया जाये तो भी तिल अथवा राई मात्र है, जबकि परमात्मा के एहसान हिमालय से भी ऊँचे हैं। ऐसे जब भाव की बाढ़ उसके मन में आती है तो उसकी आँखें छलकने लगती हैं और वह उस समय परमात्मा का मिलन मना रहा होता है। एहसान मानते हुए मिलन मनाने की उस स्थिति विशेष का नाम ही तो क्रयोगञ्ज है। वह ‘आसान योग’ भी है और ‘एहसान योग’ भी है। हैवान भी अपने मालिक का एहसान मानता है और यदि इन्सान एहसान न माने, माफ कीजिएगा तो वह ‘बे-ईमान’ है। इसके अतिरिक्त, योगी को योगी बनने में जो भी कोई सहयोग देता है, उसके प्रति भी उसके मन में एहसान का एहसास होता है क्योंकि वो उसके जीवन को अच्छा बनाने के निमित्त बना। जिसके मन में सहयोगियों के प्रति एहसान नहीं होगा, वह न तो स्वयं सहयोगी बन सकता है, न योगी क्योंकि वह प्रीति की रीति को निभाना ही नहीं जानता। बुरों के साथ भलाई करने की बात तो दूर रही, जिन्होंने उसके साथ भलाई की, वह तो उनके साथ भी भलाई करना नहीं जानता, तब भला उसके व्यवहार में वो सज्जनता, सौष्ठव(सुन्दरता) अथवा श्रेष्ठता कैसे आ सकते हैं?
कुछ लोग ऐसे होते हैं जो किसी छोटे-मोटे, अच्छे काम करने वाले हर व्यक्ति को हर पाँच मिनट के बाद एक शिष्टाचार के नाते कहते हैं- “आपका धन्यवाद” न जाने दिन-भर में कितनी बार, कितने लोगों को वे सभ्यता के नाते धन्यवाद कहते होंगे। इस सभ्यता के तौर पर कहे गये धन्यवाद की बात अलग है, परन्तु एहसान मानने की बात का सम्बन्ध मन की गहराई से होता है। प्रथम अर्थात् धन्यवाद का सम्बन्ध सभ्यता से और मन की गहराई से, एहसान मानने का सम्बन्ध प्रेम से किसी के द्वारा की गई भलाई के आदर भाव से, उस व्यक्ति के प्रति कृतज्ञता से तथा कभी उसके साथ भलाई करने की कसक तीव्र इच्छा से है।
ऐहसान करने वाले की सेवा
इस प्रसंग से सम्बन्धित हमने बाबा की कत्र्तव्य-निष्ठा में तीन विशेष बातें देखीं – एक तो यह कि यज्ञ की किसी भी कठिनाई को हल करने में सहयोग देने वाले व्यक्ति को वे भूला नहीं देते थे। विशेष अवसरों पर वे उसे याद करते थे, वे निमन्त्रण देते थे, उसके प्रति आन्तरिक स्नेह की अभिव्यक्ति करते थे। वे उसका उपकार करने की बात सोचते थे,
उसके कल्याण की युक्ति उसे बताते हुए कभी थकते नहीं थे। वे यज्ञ-वत्सों को कहा करते थे कि वे उस व्यक्ति की ज्ञान-गुण-योग से सेवा करते रहें।
दूसरी बात यह है कि वे यज्ञ में किसी का सहयोग लेने से पहले उसकी सेवा करने को कहा करते थे। कभी तुरन्त सहयोग लेने का अवसर आता तो भी वे उस व्यक्ति को कहा करते कि–क्रक्रआप ने हमारी सेवा तो अभी ली नहीं , तब हम यज्ञार्थ आपकी सेवा कैसे लें ?ञ्जञ्ज ऐसे तरीके से वे उसक ा ध्यान खिंचवा कर उसकी सेवा शुरू ही कर देते थे और भविष्य में भी सेवा लेते रहने के लिये उसे मनवा लेते थे।
तीसरी बात यह है कि वे जिसकी सेवा करते, उसे कहा करते कि यह हमारे द्वारा किया गया कोई ऐहसान नहीं है। उदाहरण के तौर पर उन दिनों हम क्रईश्वरीय निमन्त्रण ञ्ज छपवाया करते तो उसमें भी वे इस प्रकार के शब्द लिखने के लिये आज्ञा देते थे अर्थात राजयोग विद्या सिखाने की हमारी यह सेवा नि:शुल्क होगी और इस कार्य का आप पर कोई ऐहसान नहीं होगा क्योंकी हम तो आपका केवल ईश्वरीय जन्म-सिद्ध अधिकार देने के निमित्त बनेंगे।
इस प्रक ार देखा गया कि वे स्वयं तो दूसरे के प्रति धन्यवाद की भावना बनाया रखते थे और उसके सहयोग को अविनाशी बना देते थे परन्तु जो स्वयं उपकार करते, उसे अपने द्वारा दूसरे पर किया गया ऐहसान नहीं जतलाते थे बल्कि दूसरे व्यक्ति को निश्चित कर देते थे ताकि वह भारी अनुभव न करे।
अत: योगी जीवन की मर्यादा में यह भी शामिल है कि हम दूसरें के सहयोग के प्रति तो हृदय से धन्यवादी हों परन्तु अपनी सेवा का कभी भी ऐहसान न जतलायें और हम कभी भी ऐहसान फरामोश न बनें ।

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