आज समाज के सामने अनेकानेक समस्याएं हैं परंतु देखा जाये तो उनमें भी प्राय: सभी समस्याओं का मूल कारण मानव के मन में तनाव अथवा उसके व्यवहार में भावावेश ही है। समय-समय पर होने वाले युद्ध, जिनपर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं और जिनसे अनगिनत नर-बलि होती है तथा अशांति की, पीडि़तों, विधवाओं एवं शरणार्थियों की तथा वस्तु-अभाव की अनेक विकट समस्याएं पैदा होती हैं, पर ही विचार कीजिए। निष्कर्ष निकलेगा… सहिष्णुता की कमी और लेन-देन में उग्रता एवं उत्तेजना का समावेश। अर्थात् पारस्परिक संपर्क में मानसिक तनाव का अस्तित्व ही इसका मूल कारण होता है। तभी तो कहा गया है कि लड़ाई मानव के मन में पैदा होती है(वॉर्स आर बॉर्न इन माइंड ऑफ मैन)। इसी तरह मिल मालिकों और मजदूरों में, पुलिस और विद्यार्थियों में, प्रशासन और जनता में भी जब तनाव की स्थिति पैदा होती है तभी तोड़-फोड़, हड़तालें, अग्निकांड, पथराव आदि-आदि की नौबत आती है।
समाज के विभिन्न अंगों में अथवा एक देश और दूसरे देश के बीच ही नहीं बनती बल्कि घर के घेरे में भी जब तनाव पैदा होता है तभी तलाक, आत्महत्या, अनेक प्रकार के मानसिक और शारीरिक रोग और बेचैनी तथा अनिद्रा की-सी स्थिति पैदा होती है।
कहां-कहां तक गिनायें- कत्ल, मुकदमे, दुर्घटनायें, बहुत से अपराध मानसिक तनाव ही के कारण होते हैं। तनाव से न केवल ये सब समस्याएं पैदा होती हैं बल्कि इससे एक विशेष हानि भी है कि तनाव की स्थिति में मनुष्य अपना मानसिक संतुलन, भावात्मक शांति और एकरस स्थिति खोये हुए होने के कारण अपनी समस्याओं को यथा-तथ्य समझ ही नहीं पाता है और उनके निवारण के लिए किसी सही निष्कर्ष पर भी नहीं पहुंच पाता बल्कि उत्तेजित होकर, और उलझनों में पड़कर, मनोबल को खोकर स्थिति को अधिक पेचीदा बना बैठता है और नित नई समस्याओं को जन्म देता है।
इसी प्रकार विचार किया जाये तो स्पष्ट होता है कि आज समाज की सबसे बड़ी सेवा मानव मन को संतुलन देना है। जिससे वे देवत्व की बजाय दानव भावावेश में आकर कोई ऐसा कर्म न कर दें जिससे चहुं ओर उसका विपरीत असर हो। मानव एक मननशील प्राणी है, उसमें दूरदर्शिता एवं धैर्य आदि गुणों का तथा बुद्धि का प्राबल्य हो सकता है। अत: मानव को विधि-विधान के अनुकूल एवं अनुशासन प्रिय बनाना, चिंतन शील बनाना तथा दूसरों का सहयोगी बनने का भाव उसमें उत्पन्न कराना ही सच्ची समाज की सेवा है। वरना तो समाज एक समाज न रहकर जमघट ही बन जायेगा। मानव-मन को शांत, शुद्ध और संतुलित बनाने की सेवा एक उच्च कार्य है। इसके फलस्वरूप एक ऐसे समाज का निर्माण होता है जिसमें पारस्परिक व्यवहारों में मूल स्थान में प्रेम, शांति, धैर्य, संतोष, दया और त्याग होता है, इससे स्वत: ही बहुत सी समस्याएं निर्मूल हो जाती हैं। वे सभी समस्याएं जिन्हें आज के समाजसेवक आर्थिक, राजनैतिक अथवा सामाजिक उपायों से हल करने का असफल प्रयास कर रहे हैं।
यदि मनुष्य अपने जीवन में चार बातों को विशेष रूप से अपनाये तो उसके सम्बंधों में समरसता भी रह सकती है। यह चार धारणायें हैं- 1. गुण चिंतन, 2. धैर्य, 3. मैत्री भाव और 4. संतोष। आज के मानव को इन सभी चार धारणाओं को अपने में धारण करने के लिए योग क्रसेतुञ्ज का काम कर सकता है।
अत: योग ही मानसिक तनाव को दूर कर मानव-मन को शांति प्रदान करने का, समाज की समस्याओं को दूर करने का, पारस्परिक सम्बंधों में स्नेह, सहयोग, त्याग और श्रेष्ठ सहिष्णुता लाने का एकमात्र तरीका है जिसे सभी को अपनाना चाहिए क्योंकि ‘राजयोग’ का अर्थ ही है मानव का प्रभु से सम्बंध जोडऩा तथा मानव का मानव से सहयोग।