मुख पृष्ठदादी जीदादी प्रकाशमणि जीबाबा कहते... मांगने से मरना भला, 'दाता' लेवता बन नहीं सकते

बाबा कहते… मांगने से मरना भला, ‘दाता’ लेवता बन नहीं सकते

जिसमें ज़रा भी मूड ऑफ की आदत है, उसे मान मिल नहीं सकता। मूड ऑफ माना ऑफ। उसे कौन सी प्रेम की ऑफर मिलेगी। उसे कौन आफरीन देगा? जहाँ दिव्यता है वहाँ मान-अपमान का सवाल समाप्त हो जाता।

बाबा ने कहा बच्चे दु:ख-सुख, स्तुति-निंदा, मान-अपमान सबमें समान रहने की, एकरस स्थिति में रहने की, सहनशील होने की शक्ति चाहिए। तो यह शक्ति चाहिए या मुझ आत्मा का अथवा इस ज्ञान का पहला-पहला गुण ही यह है? ज्ञानी तू आत्मा का गुण है – समान रहना। अगर ज्ञानी तू आत्मा में यह गुण नहीं तो वह प्रिय नहीं। जब हम अपने को ज्ञानी तू आत्मा कहते माना हमारे अन्दर ड्रामा की सारी नॉलेज है। हर आत्मा के सतोप्रधान, सतो, रजो, तमो की स्टेजेस की भी नॉलेज है। जब नॉलेज है तो नॉलेज की शक्ति के आधार पर समान रहने की शक्ति स्वत: ही आ जाती है।
जैसे बाल से युवा, युवा से वृद्ध क्यों बनाया? परन्तु जानते हैं यह प्रकृति का नियम है। चार ऋतुयें होना, यह भी प्रकृति का नियम है। जब हम जानते हैं कि यह नियम है, तो हम क्यों कहें ओ प्रकृति तुम हमें ठण्डी में व गर्मी में दु:ख क्यों देती! हम जानते हैं यह नेचर का गुण है। सर्दी के समय सर्दी, गर्मी के समय गर्मी होनी ही है। हमारे पास उससे बचने के साधन हैं तो उसे यूज़ करें। हम जान गये अभी की प्रकृति है ही तमोप्रधान। सतयुग में प्रकृति सतोप्रधान है इसलिए सुखदाई है। अभी तमोप्रधान है इसलिए प्रकृति पर कभी गुस्सा नहीं आता। कभी भी हम ऐसे नहीं लड़ते- ऐ सर्दी तू मुझे दु:ख क्यों देती? किससे लड़ेंगे? जब बुद्धि में आता यह तो प्रकृति का धर्म है तो उससे लडऩे नहीं जाते। फिर जब कहते क्या करें यह पारिवारिक परिस्थितियां आती हैं। वह तो आयेंगी ही। मैं उससे दु:खी क्यों हूँ! जैसे प्रकृति का दु:ख-सुख सहन करते, वैसे यह परिवार का भी तो हिसाब-किताब है। मैं उसमें क्यों लड़ूँ! हमें उसमें अपनी स्थिति अप-डाउन नहीं करनी है। कभी-कभी सोचते मुझे तो सबसे मान मिलना चाहिए। ये मुझे मान नहीं देता इसलिए गुस्सा आता। लेकिन जब प्रकृति दु:ख देती तो गुस्सा क्यों नहीं आता। जब मेरा कोई अपमान करता तो मैं रंज होती लेकिन मैं सोचूं कि मैंने उसे कितना मान दिया है। एक है देना, एक है लेना। जब अपमान पर गुस्सा आता माना मैं मान की भूखी, प्यासी हूँ। मान की मांग है। मैं दाता बनूं या लेवता बनूं? मुझे मान देना है या लेना है? मैं वरदाता हूँ या आत्माओं से वर लेने वाली हूँ? मान मांगना अर्थात् आत्माओं से वर मांगना। बाबा कहता मांगने से मरना भला… मैं दाता की बच्ची दाता हूँ तो लेवता क्यों बनते! यह सवाल हरेक अपने से पूछे।
जिसमें ज़रा भी मूड ऑफ की आदत है उसे मान मिल नहीं सकता। मूड ऑफ माना ऑफ। उसे कौन सी प्रेम की ऑफर मिलेगी। उसे कौन आफरीन देगा? अगर कहते ऑफ होने की आदत है, तो आदत शब्द ही बुरा है। दिव्यता माना गुण। मेरा गुण है, दिव्य रहना। जहाँ दिव्यता है वहाँ मान अपमान का सवाल समाप्त हो जाता। जहाँ मांगते हो कि मान मिले, वहाँ वह दूर हो जाता है। आज के राजनेतायें मान के लिए चेयर मांगते, आज मिलती कल चेयर उठाकर फेंक देते क्योंकि है ही प्रजातन्त्र। हम तो राजाओं के राजा हैं, हम कभी मांग नहीं सकते। राजा कभी नहीं कह सकता कि यह चपरासी मेरी इज्जत गंवाता है। राजा का तो ऑर्डर चलता। तो पूछो मैं राज्य अधिकारी हूँ या मैं अपने चपरासियों के अधीन हूँ? दिलाराम बाप के दिलाराम बच्चे बनो। बाबा ने तो कहा है तुम शरीर निर्वाह के लिए कर्म करो। बाकी बाबा ने चित्र देखने की, नॉविल्स पढऩे की छुट्टी कभी नहीं दी।

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