मंत्र नहीं है परमात्म मिलन का सम्पूर्ण तंत्र

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मंत्र मन को कुछ समय के लिए बहला सकता है, मन को कुछ समय के लिए भटकने से ठहरा सकता है लेकिन परमात्म मिलन नहीं करा सकता।

हम कई बार मंत्र जपते हुए भगवान को याद करने की कोशिश करते हैं। मंत्र जपने के बजाय भावपूर्ण तथा परिचय सहित प्रभु से हम स्वाभाविक रीति से मन में कुछ भी वार्ता करें, वह स्वाभाविक भी है और सूक्ष्म भी।
विशेष मंत्र उच्चारण करने वाले का ध्यान शब्दों की ओर रहता है इससे उसका ध्यान प्रभु की ओर पूर्ण रीति से न होकर बंटा हुआ सा होता है, जबकि स्वाभाविक स्नेह, सहज भाव से होने वाली प्रभु स्मृति में पूरा ध्यान ज्योति स्वरूप प्रभु की ओर ही रहता है; इसलिए उसमें विचार तरंगे सीधे लक्ष्य को जाकर स्पर्श करती हैं और योगी की धारा अभंग, अखंड, अमिश्रित एवं एकांगी होती है।
यदि मंत्र उच्चारण व स्मरण करने वाला कोई व्यक्ति हमारे इस कथन का निषेध करते हुए कहता है कि- ”मंत्र स्मरण में हमारा ध्यान मंत्र की ओर रिंचक भी नहीं रहता बल्कि पूर्णत: इष्ट की ओर रहता है, तब तो मंत्र की आवश्यकता ही क्या है! मंत्र का स्मरण करने वाले लोग मंत्र की प्राय: यही तो आवश्यकता बताते हैं कि मन को टिकाने के लिए यह सहायक होता है। यदि यह सहायक नहीं है, तब तो इसकी आवश्यकता ही न रही! यदि यह सहायक है तो स्पष्ट है कि मन का ध्यान बंट जाता है। जिस क्षणांश में मन प्रभु पर टिका है, उतना समय वह मंत्र भंग हुआ मानिये। और जिस क्षणांश में मन मंत्र पर आश्रित होता है उतना समय वो मंत्र भंग हुआ मानिये। और जिस क्षंणाश में मन मंत्र पर आश्रित होता है, उस क्षंणाश में वह प्रभु से हटा होता है; तब वह मनुष्य योग स्थिति में नहीं होता; गोया वह प्रभु से योग होने के बजाय उसका योग मंत्र से होता है। दूसरी बात यह है- यदि मंत्र एक सहज क्रिया की तरह स्वत: ही होता रहता है, अर्थात् उनमें ध्यान रिंचक मात्र भी नहीं देना होता, तब तो उसमें कोई रस ही न रहा। न कोई भाव रहा, वो तो हमारे अवधान या ‘धारणा’ से रहित होने के कारण समाधि अथवा ईश्वरानुभूति देने वाला नहीं हो सकता। तब इसका क्या लाभ!
कुछ लोग कहते हैं कि – ”मंत्र के उच्चारण व स्मरण से विशेष प्रकार की तरंगे अथवा प्रकम्पन वायुमण्डल में प्रवाहित होते हैं जोकि वायुमण्डल में आध्यात्मिकता, शांति तथा उल्लास पैदा कर देते हैं और मंत्र की शब्द-रचना एवं अक्षर-चयना, ऐसा होता है कि उससे विशेष प्रकार की सिद्धि होती है। तथा उससे इष्ट की कृपा होती है।” ‘शब्दों का विशेष प्रभाव होता है’- इससे हम इन्कार नहीं करते। यह तो आज भी जानते हैं कि संगीत का प्रभाव पुष्पों और पौधों पर भी पड़ता है, दूध देने वाले पशुओं पर भी ऐसा प्रभाव पड़ता है कि संगीत के आधार पर वे कुछ अधिक दूध देते हैं। संगीत द्वारा कारखानों मे कार्य करने वाले व्यक्तियों की कार्य क्षमता बढ़ जाती है। किन्तु, इस प्रसंग में ध्यान देने के योग्य बात यह है कि मुख्य रूप व प्रभाव, गीत द्वारा उभारे गए आवेगों तथा भावों के कारण से होता है। कला कोई भी हो, और मनुष्य के भावपक्ष तथा प्रेम, उत्साह इत्यादि से सम्बन्धित होती है। अत: वास्तविक मंत्र तो प्रेम ही है, जोकि आत्मा और परमात्मा की लगन में मगन कर देता है। प्रेम ही दो आत्माओं को जोडऩे वाली चीज़ है। आत्मा और परमात्मा के मिलाप के लिए परिचय और प्रेम ही साधन है।

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