‘स्वतंत्रता’ यानी विकसित आत्म-तंत्र

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किसी को भी बंधन पसंद नहीं। पिंजरे के पक्षी को भी आकाश की उड़ान पसंद है। किसी देश की चारों सीमाएं निश्चित न हों तो उस ज़मीन के झगड़े में और व्यक्तियों की भावनाओं का भी बंधन हो तो निश्चित ही स्वतंत्र महसूस नहीं हो सकता। अपने देश में भी परायों की हुकूमत के तले हम आज़ाद अनुभव नहीं करते थे, उससे मुक्ति मिली और हम स्वतंत्र हुए। पर स्वतंत्र होने के बाद भी क्या आज हम अपने जीवन को कम्$फर्टेबल अनुभव करते हैं? ज्य़ादातर लोगों का उत्तर ‘ना’ में ही होगा। ‘स्वतंत्र’ शब्द को अगर हम समझें तो स्व+तंत्र। ‘स्व’ माना स्व-अस्तित्व। स्वयं का तंत्र। ‘तंत्र’ यानी एक शासन-व्यवस्था प्रणाली। यानी कि स्व-अस्तित्व का तंत्र माना अपने ऊपर सम्पूर्ण अधिकार, सम्पूर्ण कंट्रोल, सम्पूर्ण रूल होना। जिसमें ये गुण व शक्ति है वो ही स्वतंत्र है। आज हम आज़ाद हुए सिर्फ तयशुदा ज़मीन की परिधि में रहने के लिए। पर आज भी हम अपने कई अधिकारों की लड़ाई लड़ ही रहे हैं। क्या हम इससे भी स्वतंत्र हो पायेंगे? ये बात सभी के मन में कभी न कभी आती ही है। और शायद हम इसे असंभव भी मान लेते हैं। लेकिन हम आपको ये बताना चाहते हैं कि आज भी देश में ऐसा एक वर्ग है जो स्वतंत्र अर्थात् आत्म+तंत्र के अनुरूप आज़ाद जीवन व्यतीत करते हुए समस्त सृष्टि के लिए एक आदर्श है। आत्म+तंत्र को विकसित करना और आध्यात्मिक नियमों का पालन करते हुए, स्वयं के तंत्र को चलाते हुए आज़ादी महसूस करना, यही वास्तव में स्वतंत्रता है। आत्म+तंत्र क्या है? अगर हम बहुत सारी बातों को न लेते हुए निष्कर्ष पर पहुंचें तो मानव की मूलभूत आवश्यकतायें सात शब्दों में निहित हैं। जिसे ये सात शब्द सही मायने में अर्थ सहित प्राप्त हों, वो स्वतंत्र है। ये सात शब्द हैं सुख, शांति, आनंद, प्रेम, ज्ञान, शक्ति और पवित्रता। ये शब्द आपने कई बार सुने होंगे और इसको पाने के लिए सुबह से शाम तक दौड़ते ही रहते हैं, बस दौड़ते ही रहते हैं। हमने कई बार ये गीत सुना है… ‘जिसकी रचना इतनी सुंदर वो कितना सुंदर होगा…!’ और दूसरी तरफ ये भी गीत गुनगुनाते रहते… ‘ईश्वर सत्य है, सत्य ही शिव है, शिव ही सुंदर है…। राम अवध में, काशी में शिव, कान्हा वृंदावन में… दया करो प्रभु देखूं इनको हर घर के आंगन में…।’ यदि हम इन पंक्तियों की गहराइयों को समझें तो हम जान सकते हैं कि कहीं न कहीं ऐसी दुनिया भी तो होगी न! जो होगा उसका ही तो गायन होता है ना! उसको ही तो याद किया जाता है ना! जिसका अस्तित्व ही नहीं, जिसका कोई चित्र ही न हो तो उसका चरित्र भी तो नहीं होगा। न ही हमें लुभायेगा उसेप्राप्त करने के लिए। अधिक विस्तार में न जाते हुए ये कहना चाहते हैं कि जब परमात्मा ने सृष्टि रची, मानव के रूप में उसने अपनी सबसे सुंदर रचना बनाई तो सबकुछ प्रचुर मात्रा में भरपूर करके ही इस दुनिया में भेजा होगा। कहने का भाव ये है कि हम सब आत्मा ऊपर से आये यहां अभिनय करने, खाली हाथ से तो परमात्मा ने नहीं भेजा होगा! जो भी हमारे जीने के लिए आवश्यकता होगी, वो भी तो साथ में दिया होगा ना! सिर्फ आत्म-दर्शन करने की ज़रूरत है। आत्म+तंत्र कहें या स्व+तंत्र कहें, बात एक ही है। आत्म-तंत्र को विकसित करना और उन गुणों के अनुरूप जीवन जीना ही स्वतंत्रता है। स्व+तंत्र का मतलब ही है स्वयं में मौजूद सारी खूबियों, सारी विशेषताओं, सारी योग्यताओं और कुशलताओं को निखारना। इस तरह से जब हम जीवन जीना सीख जायेंगे तो अपने आप में हम स्वतंत्र ही होंगे। ज़मीन, आकाश सब कुछ अपना महसूस होगा, आज़ाद फीलिंग होगी और विकसित भी। ये सबकुछ परमात्मा का है, उनका ही बख्शा है और उन पर हम सबका एक समान अधिकार है। इस भावना के साथ ही हम सबको जीना है। ‘मैं और मेरापन’ के भान से निकलना ही सच्ची स्वतंत्रता है।

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