कहा जाता तू प्यार करो तो सब करें। कहते मैं तो सबको प्यार देता लेकिन आगे वाला मुझे ठुकराता। इसमें हमेशा समझो यह मेरा हिसाब-किताब है। 63 जन्मों का हिसाब-किताब चुक्तू करना है। जहाँ प्यार होगा वहाँ सब मान देंगे। शुभ भावना रहेगी, शुभ चिन्तन चलेगा फिर उनके लिए मेरा वरदान रहेगा। अगर मैं इस स्थिति पर रहूंगी तो सब मेरी स्तुति करेंगे। अगर मैं ही अपनी स्थिति पर नहीं रहती तो कोई भी मेरी क्या स्तुति करेगा!
हरेक अपने से पूछो- पहले मेरी स्तुति मेरे 10 मंत्री(कर्मेन्द्रियां) करते? जो मुझ आत्मा का संस्कार है वह संस्कार मेरी स्तुति करता? जब मेरा संस्कार मेरी स्तुति ऑर्डर में रहे तब दूसरे भी स्तुति करेंगे। बाबा ने कहा 3 मंत्री हैं मुख्य। मन, बुद्धि और संस्कार। तो मेरा मन सदा मेरे चरणों में रहता अर्थात् मैं जो पवित्र आत्मा हूँ, मेरा मन सदा ऐसा ही स्वच्छ पवित्र और सदा ऊंचा रहता? मेरा पहला मंत्री मेरे ऑर्डर में है? ऑर्डर में है तो शुद्ध संकल्प स्वत: रहेंगे। फिर यह क्यों आता मेरा यहाँ अपमान हुआ? यह संकल्प उठाना भी तो अशुद्धता है। अपने से पूछो मैं अपनी महानता की ऊंची स्थिति पर रहता? जब मैं उसी स्थिति पर रहूँगी तो सब मेरा मान करेंगे। कई कहते हैं मेरी वृत्ति अच्छी नहीं, मेरी वृत्ति चंचल होती है, अगर मैं यही रिपोर्ट करती तो मैं दूसरे से क्या मान माँगू! पहले तो अपनी रिपोर्ट बन्द करो। तुम पहले अपने मंत्री से प्यार पाओ पीछे दूसरे से मांगो। अगर वृत्ति चंचल है माना मंत्री कन्ट्रोल में नहीं है।
कहते हैं दक्ष प्रजापिता ने यज्ञ रचा। अब दस शीश वाले रावण को स्वाहा करने के लिए हमारे बाबा ने यह रुद्र यज्ञ रचा है। इसमें ब्राह्मण बच्चों ने अपना सब कुछ स्वाहा कर दिया। तो हरेक पूछे मैंने अपने दस राक्षसों को स्वाहा किया है? इन्द्रिय जीत बनने का मतलब है अपनी कर्मेन्द्रियों को दिव्य बनाना। तो चेक करो कि मेरे कान दिव्य बने हैं? या अभी तक कनरस सुनने का शौक है? परचिन्तन पतन की ओर ले जायेगा। फिर ऐसा परचिन्तन वाला मान पा सकता है? हमारे यह नयन दूसरे को प्यार की भावना से, भाई-भाई की दृष्टि से, बाबा के रत्न देखने के लिए हैं, अगर यह नयन बुरी दृष्टि से देखते, द्वेष की दृष्टि से देखते तो क्या यह नयन मुझे मान देंगे! अगर नयनों ने बुरी नज़र से देखा, द्वेष दृष्टि डाली तो मेरे नयन ही मुझे अपमानित करते, दु:ख देेते। फिर दूसरे से मान कैसे मिलेगा! कहते यह मुझे इतना प्यार नहीं देता। मैं पूछती तुमने अपने को कितना प्यार किया? मैं अपने संकल्प को शुद्ध रखूंगी तो प्यार मिलेगा। मेरी बुद्धि अगर परचिन्तन में घूमती, सत्यता को छोड़, स्वच्छता को छोड़ असत्यता की ओर जा रही है तो पहले मेरी बुद्धि ने ही मुझे प्यार नहीं दिया। अगर बुद्धि ही प्यार नहीं करती तो दूसरे क्या करेंगे! पहले देखो- मेरे संस्कार मुझे रिस्पेक्ट देते हैं? मैंने अपने संस्कारों की चंचलता को स्वाहा किया है? मेरे अपने संस्कारों की चंचलता को स्वाहा किया है? अगर मेरे संस्कार ही मुझे रिस्पेक्ट नहीं देते तो दूसरे क्या देंगे!
जिसमें ज़रा भी मूड ऑफ की आदत है, उसे मान मिल नहीं सकता। मूड ऑफ माना ऑफ। उसे कौन-सी प्रेम की ऑफर मिलेगी! उसे कौन आफरीन देगा? अगर कहते ऑफ होने की आदत है, तो आदत शब्द ही बुरा है। दिव्यता माना गुण। मेरा गुण है, दिव्य रहना। जहाँ दिव्यता है वहाँ मान-अपमान का सवाल समाप्त हो जाता। जहाँ मांगते हो कि मान मिले, वहाँ वह दूर हो जाता है।
जहाँ दिव्यता है वहाँ मान-अपमान का सवाल समाप्त हो जाता
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