जो दूसरों को दु:ख नहीं देंगे वो बहुत सुखी रहेंगे, उन्हें हर तरह का सुख प्राप्त होगा। परिवार का सुख, सम्बन्धों का सुख, बच्चों का सुख, पति-पत्नी का सुख, सब सुख उन्हें प्राप्त होंगे।
हम सभी ईश्वरीय मार्ग पर हैं और भगवान की संतान हैं। उसकी महिमा में हम युगों से गाते रहे तुम दु:ख हर्ता-सुख कर्ता हो, तो हम उसकी संतान हैं। हम भी मास्टर दु:ख हर्ता-सुख कर्ता हैं। हमें भी अपने अन्दर ये निश्चय कर देना है, दृढ़ता ले आनी है कि हम सभी को सुख देंगे। हम सभी के दु:ख हरेंगे। सभी के दु:ख हरना हमारा परम कत्र्तव्य है। तो जिन्हें सभी के दु:ख हरने हों वो भला किसी को दु:ख कैसे दे सकते हैं! संसार में तो आप देख रहे हैं सम्बन्धों में दु:खों का लेन-देन ज्य़ादा ही बढ़ गया है। जिससे कोई किसी से खुश नहीं, कोई किसी से सन्तुष्ट नहीं, कोई किसी को कुछ भी बोल देता है, किसी को कुछ ख्याल ही नहीं कि ये हर्ट होंगे, इनको कष्ट होगा, इनकी शांति चली जायेगी, इनकी खुशी चली जायेगी। उनको तो क्रोध आता है और बोलने लगते हैं, दूसरे पर चाहे उसका कुछ भी असर हो और ये एक बहुत बड़ा कारण बन गया आजकल संसार में मानसिक रोग बढ़ते ही जा रहे हैं। तो हम पक्का कर दें कि हम किसी को दु:ख देकर अपने खाते को जटिल नहीं बनायेंगे। क्योंकि जो कर्म मनुष्य करता है उसका फल तो उसे भोगना ही पड़ता है। उससे कोई बच नहीं सकता। हमारे बोल, हमारी दृष्टि, हमारी भावनायें बहुत सुखदाई हों। हमारे बोल दूसरों के स्ट्रेस को, दूसरों की टेन्शन को कम करने वाले हों। हमारे बोल वरदानी बोल बन जायें, हमारे बोल दूसरों को उमंग-उत्साह देने लगें। हमारे बोल दुआयें देने वाले हो जायें, आप सभी इस बात से सहमत अवश्य होंगे। मैं ये बात सभी को कहना चाहता हूँ कि यदि हमारे बोल से, हमारे व्यवहार से लेकिन मन में भी यदि हम किसी के लिए दु:ख देने की, वैर भाव की, बदला लेने की एक फीलिंग रखते हैं, एटीट्यूड रखते हैं तो इन सबसे हमारा विकर्मों का खाता बढ़ता जाता है। बहुत ही स्पष्ट रूप से जान लें हमारे बोल या व्यवहार से किसी की खुशी नष्ट हो जाती है, यदि किसी की शांति परेशानी में बदल जाती है, कोई तो बार-बार ये बोल सुनकर रोगी बन जाते हैं, दबाव में रहने लगते हैं। एक तो ये बात हमारा पाप-कर्मों का खाता बढ़ता जा रहा है। और हमें दूसरी बात जाननी चाहिए कि इसका रिटर्न भी होता है। किसी न किसी समय हमसे वो भी वैसा ही व्यवहार करेंगे। क्योंकि ये इस सृष्टि का सत्य सिद्धान्त है। जो मनुष्य जैसा व्यवहार दूसरे से करता है उसको वैसा ही व्यवहार मिलता है। तो हम अपने इस व्यवहार को, अपने इस बोल को बदलें। विडम्बना संसार में ये है कि लोग कटु-वचन बोल रहे हैं, लोग दूसरों को दु:खी कर रहे हैं, भिन्न-भिन्न तरीके अपना रहे हैं, लेकिन करने वालों को ये रियलाइज़ेशन नहीं है कि वो उनको दु:खी कर रहे हैं। संसार में आज बहुत लोग दु:खी हैं। मैं सोचा करता हूँ कि ये दु:खी क्यों हैं? ज़रूर पास्ट में, चाहे इस जन्म में, चाहे पूर्व जन्मों में इन्होंने बड़ा दु:ख दिया है, बड़ा कष्ट पहुँचाया है। इसलिए ये बहुत दु:खी हैं आज। ये दोष भले ही दूसरे को देते हों, लेकिन वो रिटर्न हो रहा है। इसका मतलब ये नहीं कि हम किसी दूसरे को बुरा बोलें और हम कहें कि हम तो रिटर्न दे रहे हैं, नहीं। तो एक इस बात में बहुत ध्यान देना है। हम किसी को मन से, वचन से, कर्म से, दु:ख नहीं देंगे। दृढ़ संकल्प कर लें आज। जो दूसरों को दु:ख नहीं देंगे वो बहुत सुखी रहेंगे, उन्हें हर तरह का सुख प्राप्त होगा। परिवार का सुख, सम्बन्धों का सुख, बच्चों का सुख, पति-पत्नी का सुख, सब सुख उन्हें प्राप्त होंगे। और जो दूसरों का सुख छिनते रहे, इस सत्य को बिल्कुल भुलाना नहीं। उनका सुख भी एक दिन अवश्य छिन जायेगा। तो हम किसी को दु:ख नहीं देंगे। बहुत लोगों को हम देख रहे हैं कितने कष्ट पाकर वो देह छोड़ते हैं। पाँच साल, दस साल, कोई तो बारह साल अति कष्टों में रहकर फिर देह का त्याग करते हैं। इसलिए कोशिश करेंगे कि अगर कोई हमें उल्टा-सुल्टा बोले भी हम सहनशील बनें। सहनशीलता का ये अर्थ भी नहीं कि हम घुटते रहें अन्दर में। कभी बोलने की भी ज़रूरत पड़ जाती है तो बोल देना चाहिए। ऐसे नहीं हमारा मन भारी होता रहे और दूसरा व्यक्ति बोलता ही जाये, बुरा व्यवहार करता ही जाये। इसमें भी समझदारी चाहिए थोड़ी। अब दूसरी बात जो इसमें हैं कि हम दु:ख दें तो नहीं लेकिन दु:ख लें भी नहीं। बहुत महत्त्वपूर्ण वाणी है भगवान की- न दु:ख दो, न दु:ख लो। तो इसमें एक बात तो ये याद रखनी है कि जो दूसरों को दु:ख देते हैं उनमें दु:खों को सहने की शक्ति नहीं रहती, वो नष्ट हो जाती है। जैसे जो दूसरों की बहुत निंदा करते हैं उनकी निंदा होती है तो वो सहन ही नहीं कर पाते। कहते हैं कि कैसे-कैसे लोग हैं, मेरे लिए क्या-क्या बोलते रहते हैं। लेकिन जब वो बोलते हैं तो उन्हें भी इस चीज़ का एहसास नहीं होता कि वो भी कुछ गलती कर रहे हैं। तो हमें तैयार भी रहना है क्योंकि कलियुग का अंत आ गया है। सबके हिसाब-किताब भी चुक्तू हो रहे हैं। अब इसके लिए हम स्वमान के द्वारा अपनी इनर पॉवर को बढ़ायें। दूसरा, कोई कुछ हमें बोल रहा है उसको और उन बातों को सहज रूप से लें, हल्के रहें। इसने ऐसा क्यों बोला, ऐसा नहीं बोलना चाहिए, ये रोज़ मुझे बोलते हैं, ये मेरे पीछे पड़े हुए हैं ये सब छोड़ के हल्के रूप से लेंगे और योग अभ्यास बढ़ायेंगे तो मन पॉवरफुल हो जायेगा। और ये सब बातें खेल जैसी लगने लग जायेंगी। और फिर हम ऐसे हो जायेंगे- चाहे सारा संसार हमें दु:खी करना चाहे हम दु:खी हो ही नहीं सकते। हममें ताकत है हर दु:ख को सहने की। न बीमारियां दु:खी कर सकती और न दूसरों का व्यवहार, कटु-वचन दु:खी कर सकते। तो आओ हम सब मिलकर सुख दाता के बच्चे सुखदाई बनें।