मन्सा वृत्ति को पवित्र बनाने के लिए दैहिक वृत्ति को समाप्त करो

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ब्राह्मण माना शीतल काया वाले योगी। जब काम की वृत्ति पूरी नहीं होती तो गुस्सा निकलता है। दैहिक वृत्ति जाना माना पाप, तो पुण्य आत्मा कब बनेंगे? जो कम्पलीट विजयी हैं उसे ही पुण्य आत्मा कहा जायेगा।

मन्सा की पवित्रता कहाँ तक धारण की है? प्रकृति में चंचलता क्यों होती है? खान-पान में वृत्ति क्यों जाती है? फैशन व कपड़ों आदि में शौक क्यों? देह-अहंकार का नशा क्यों? मन में गुस्सा उठता है क्यों? जब बाबा इशारा देते बच्चे अन्तर्मुख हो जाओ फिर भी अन्तर्मुख क्यों नहीं होते? बाबा कहते बच्चे गम्भीर हो जाओ तो भी इशारे को क्यों नहीं समझते? योग में इन्ट्रेस्ट क्यों नहीं? क्यों नहीं शीतल योगी बनते? पढ़ाई में इन्ट्रेस्ट क्यों नहीं? इन सब प्रश्नों का जवाब यही है कि अन्दर की मन्सा वृत्ति प्युअर नहीं है। अन्दर में प्युरिटी हो तो उसकी शक्ति से यह सब बातें समाप्त हो जायेंगी। इसका अपने ऊपर अटेन्शन हो। बाहरमुखता के कारण ही वृत्ति जाती है। बाहरमुखता आने से ही संग का रंग लगता है और विकारों के वशीभूत होते हैं। हम सब रक्षक बाप की रक्षा के नीचे बैठे हैं, इसलिए ख्याल चला कि हर एक अपने अन्दर ऐसी विल पॉवर क्यों नहीं रखते हैं? क्या आप पाण्डव ऐसी चैलेन्ज कर सकते हो कि हम पक्के पवित्र योगी, सर्वकर्मेन्द्रिय जीत हैं? कोई भी देह आकर्षण मुझे आकर्षित कर नहीं सकती? दिखाते हैं कि जगदम्बा काली ने अपने पांव नीचे असुर को दबाया है। यदि थोड़ी भी बुरी दृष्टि वाला है तो उसको असुर कहा जाता है। उसे एकदम पांव नीचे दबाया, उसका नाम है शिवशक्ति। कोई भी वृत्ति वाला क्यों नहीं आवे, उसकी वृत्तियां सामने आते ही बदल जायें। दुनिया इस बात को मुश्किल समझती और बाबा हमें इसी बात पर विजय प्राप्त कराते हैं। जो बालब्रह्मचारी योगी हैं, वह बड़े नाज़ से कहेंगे, ऐसे बाल ब्रह्मचारियों ने यह रिकार्ड तोड़ा है। तो अपने आपसे पूछो कि क्या हमने कम्पलीट मात्रा में इन विकारी वृत्तियों को जीता है? अगर नहीं तो क्यों? हंसी-मज़ाक भी क्यों? हमारे पाण्डव पक्के योगी रहो – यह है मेरा संकल्प। एक-एक पाण्डव चमकता हुआ योगी दिखाई दे। तो खुद की सूक्ष्म चेकिंग करो कि हमारी मन्सा, वाचा सूक्ष्म भी कहाँ है? अगर मन्सा वृत्ति भी किसी देहधारी में जाती है तो दृढ़ता की तपस्या अग्नि में उस वृत्ति को समाप्त कर दो। हम शूद्र जन्म से मर गये तो फिर हमारे में वह संस्कार क्यों? अभी हमारा जन्म बदल गया, संस्कार बदल गये- तब ब्राह्मण बने। नहीं तो ब्राह्मण ही नहीं कहो। ब्राह्मण माना शीतल काया वाले योगी। जब काम की वृत्ति पूरी नहीं होती तो गुस्सा निकलता है। दैहिक वृत्ति जाना माना पाप, तो पुण्य आत्मा कब बनेंगे? जो कम्पलीट विजयी हैं उसे ही पुण्य आत्मा कहा जायेगा। तो क्या यह सम्भव नहीं हो सकता? क्या पाण्डव ऐसे पॉवरफुल बनकर नहीं हो सकते? आज ये इस संस्कार का अन्तिम संस्कार कर दो। सम्भव है या नहीं? हम सब विजयी रत्न हो जाएं। साइलेंस का ऐसा वायुमण्डल बनाओ। पवित्रता के बल से विश्व को पावन बनाने की सेवा करो। अपनी सूक्ष्म चेकिंग करो कि – 1. अब घड़ी तक मेरी मन्सा, वाचा कितने परसेन्ट प्युअर बनी है? 2. अगर कोई हार है तो मेरी प्रकृति के अनुकूल किस प्रकार की वीकनेस है? दृष्टि, वृत्ति, संकल्प, स्वप्न… 3. अगर सूक्ष्म में भी विकारी भावनायें हैं तो क्या यह महसूस होता है कि यह पाप है और इसे भस्म करना ज़रूरी है? 4. मैं आज से इसे 100 प्रतिशत भस्म करता हूँ- क्या यह वायदा अपने आपसे कर सकते? या सोचते हैं कोशिश करेंगे? तो अब इस प्रतिज्ञा की पक्की राखी बांधो और मन्सा से भी अपवित्रता के नामनिशान को समाप्त करने का दृढ़ संकल्प लो।

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