जब संस्कार बापदादा के सामान बन जायेंगे तो बापदादा का स्वरूप सभी को देखने में आएगा। जैसे बापदादा वैसे हूबहू वही गुण, वही कत्र्तव्य, वही ही बोल, वही संकल्प होने चाहिए फिर सभी के मुख से निकलेगा कि यह तो वही लगते हैं। सूरत अलग होगी, सीरत वही होगी। लेकिन सूरत में सीरत आनी चाहिए। अब बापदादा बच्चों से यही उम्मीद रखते हैं। सभी हैं ही स्नेही सफलता के सितारे, पुरुषार्थी सितारे। सर्विसएबुल बच्चों का पुरुषार्थ सफलता सहित होता है। निमित्त पुरुषार्थ करेंगे लेकिन सफलता है ही है। अब समझा क्या करना है? जो सोचेंगे, कहेंगे वही करेंगे। जब ऐसे शब्द सुनते हैं कि सोचेंगे, देखेंगे विचार तो ऐसा है। तो हँसते हैं कि अब तक यह क्यों? अब यह बातें ऐसी लगती हैं जैसे बुजुर्ग होने के बाद कोई गुड्डियों का खेल करें तो क्या लगता है? तो बापदादा भी मुस्कुराते हैं- बुजुर्ग होते भी कभी-कभी बचपन का खेल करने में लग जाते हैं। गुड्डियों का खेल क्या होता है, मालूम है? उनको छोटे से बड़ा करते, फिर स्वयंवर करते। वैसे बच्चे भी कई बातों की, संकल्पों की रचना करते हैं फिर उसकी पालना करते हैं, उनको बड़ा करते और फिर उनसे खुद ही तंग होते हैं। तो यह गुड्डियों का खेल नहीं हुआ? खुद ही अपने से आश्चर्य भी खाते हैं। अब ऐसी रचना नहीं रचनी है। बापदादा व्यर्थ रचना नहीं रचते हैं। और बच्चे भी व्यर्थ रचना रचकर फिर उनसे हटने और मिटाने का पुरुषार्थ करते हैं। इसलिए ऐसी रचना नहीं रचनी है। एक सेकंड में सुलटी रचना भी क्विक रचते हैं और उल्टी रचना भी इतनी तेज़ी से होती है। एक सेकंड में कितने संकल्प चलते हैं। रचना रचकर उसमें समय देकर फिर उनको खत्म करने के लिए प्रयत्न करने की आवश्यकता है। अब इस रचना को ब्रेक लगाना है।