श्रीमत क्यों ज़रूरी है?

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मनुष्य का मन जैसा कहता वैसा वो करता। इसी को आम भाषा में, साधारण भाषा में मनमत कहते हैं। क्योंकि मनुष्य कभी किसी बात को ठीक कहता है, कभी किसी बात को गलत कहता है। इतनी त्रुटियां हैं मनुष्यों के अंदर कि जब भी वो किसी को कुछ बतायेगा तो अपूर्णता के साथ ही बतायेगा, सत्य नहीं बता सकता जिससे कि सुख मिले। इसको और साधारण भाषा में पक्षपात(बायसनेस) कहते हैं। मनुष्य किसी संस्कृति के आधार से, देश के आधार से, परिस्थिति के आधार से, जाति के आधार से, भाषा के आधार से, अल्पज्ञ रीति से सभी को मत देता है। हर स्थान पर उसका पक्षपात दिखता है। इसीलिए मनुष्य किसी को भी ऐसे सदम्मार्ग को दिखाने में असमर्थ है क्योंकि खुद ही उस मार्ग पर चलता नहीं। इतनी सारी कमी और कमज़ोरियों को लेकर चलने वाला मनुष्य कभी भी किसी को उन्नत मार्ग कैसे दिखायेगा! इसके अलावा कई बार लोग सम्बंधियों से, दोस्तों से, औरों से भी सलाह करते हैं। ये सलाह भी उनकी अपनी परिस्थिति के आधार से ही होगी। तो इसको परमत कहते हैं। परमत अर्थात् जिसमें पूरी तरह से हमारा वो अनुभव नहीं है, किसी और के कहने पर हम चल पड़े। तो ज़रूर हम उसमें कहीं न कहीं मात खा जायेंगे। अब इन दोनों मतों को आपने देख लिया, तो इसमें क्या पाया कि जो भी मनुष्य देगा या परमत से हम सीखेंगे, उन सब में कुछ न कुछ मिलावट अवश्य होगी। और जहाँ मिलावट होगी वहाँ पर पूरी तरह से बात निखर के सामने नहीं आयेगी। अब इसी के समाधान में ‘श्रीमत’ शब्द भी है जो श्रेष्ठता के आधार से चलती है। जहाँ श्रेष्ठता है वहाँ पर शांति अवश्य होगी। उदाहरण के लिए एक शब्द आप लें, महानता या निर्माणता या पवित्रता, इन शब्दों को बोलने से ही हमको शांति फील होती है। आपको नफरत का एहसास नहीं हो रहा है, ईष्र्या-द्वेष का एहसास नहीं हो रहा है। तो परमात्मा हमेशा श्रीमत देते हैं, जो श्रेष्ठ मत कही जाती है। क्योंकि जब साधारण और विकारयुक्त मतों से हम मलीन होते हैं तो वहीं परमात्मा के दिये हुए श्रीमत से हम श्रेष्ठ भी बनते हैं। श्रीमत को अगर एक शब्द में बोला जाये तो एक ऐसी मत जिसमें न्यूट्रल भाव है, सबके लिए एक भाव है। मतलब इस शरीर के जितने भी टाइटल्स हैं, उन सबसे ऊपर उठकर आत्म-उन्नति का भाव है। ये भाव हमको धर्म भेद, भाषा भेद, रंग भेद, लिंग भेद, इन सबसे ऊपर उठाता है। और ये सिखाता है कि हम सभी आत्मायें इस शरीर से अलग हैं और एक पिता परमात्मा की संतान हैं। जिसके अंदर श्रेष्ठ विचार पहले से मौजूद थे लेकिन आज बहुत समय से दूसरे(शारीरिक) भावों के साथ रहने के कारण बदलाव आया। और वो बदलाव मनुष्य को नीचे ही गिराता जा रहा है। इसलिए इस दु:ख के सागर से निकालने के लिए एक ‘परमात्म-मत’ ही कार्य कर सकती है। आज हम कितनी भी किताबें पढ़ लें, कितने भी प्रेरणादाई कोट पढ़ लें लेकिन आपको अपनी उन्नति फील हो ही नहीं सकती। लेकिन जैसे ही परमात्मा की मत को हम लेते हैं, हम आगे बढऩा शुरु हो जाते हैं। जैसे एक कहावत है कि मनुष्य गलतियों का पुतला है, वैसे ही शास्त्र-मत और गुरु-मत में भी वही कुछ मान्यताएं हैं जो हमको अच्छी शिक्षा ज़रूर दे देती है लेकिन उसको किया कैसे जाये वो हमें पता नहीं होता। इसलिए श्रेष्ठ मत सदा ही सर्वश्रेष्ठ है और वो परमात्मा के आधार से ही चलता है।

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