समय के गणित के साथ तीव्र पुरूषार्थ का सम्बन्ध

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कुछ लोग कहते हैं कि क्रक्रहमें ईश्वरीय ज्ञान मार्ग में आये हुए बहुत थोड़े वर्ष हुए हैं जबकि अन्य कुछ लोग हमारी तुलना में बहुत वर्ष पहले ही से ज्ञान और योग का पुरूषार्थ करते चले आ रहे हैं। अत: अब जब हम विश्व में परिस्थितियों को बहुत तीव्र गति से बदलता देखते हैं और ऐसा महसूस करते हैं कि अब सृष्टि के महाविनाश और सतयुग के प्रारम्भ में बहुत थोड़ा ही समय रह गया है तो हमें ऐसा महसूस होता है कि हमें पुरूषार्थ के लिए बहुत कम समय मिला हैञ्जञ्ज। मान लीजिये कि किसी को योगाभ्यास, दिव्यगुणों की धारणा इत्यादि के लिए 50 वर्ष मिले और हमें तो इस पुरूषार्थ में लगे हुए 10 वर्ष ही हुए हैं, तब हम ऐसा सोचते हैं कि ”हमारा तो उन योगाभ्यासियों से कोई मुकाबला ही नहीं है जिन्हें 50 वर्ष हुए हैं। ऐसा सोचकर मन थोड़ा उदास-सा हो जाता है। ऐसा होना स्वाभाविक है ना!”
इस विषय में यह सोचने की ज़रूरत है कि पृथ्वी द्वारा सूर्य के चक्कर लगाने में जो दिन-रात बनते हैं और दिनों से जो मास और मास से फिर वर्ष बनते हैं, उस गणित के आधार पर तो नि:संदेह 50 वर्ष हो गये हैं। परन्तु वास्तव में प्रश्न इन वर्षों का नहीं है। प्रश्न यह है कि उन्होंने 50 वर्षों में कितना भाग ‘युक्तियुक्त’ पुरूषार्थ में लगाया। यदि उनका पुरूषार्थ ढीला-ढाला रहा है तब तो उनके 50 वर्ष केवल 5-7 वर्ष या 8-10 वर्ष ही के बराबर है। उदाहरण के तौर पर, एक व्यक्ति एक देश से दूसरे देश और फिर तीसरे देश में भू-भाग से बैलगाड़ी के द्वारा जाता है, दूसरा व्यक्ति मोटर-साइकिल से जाता है, तीसरा रेलगाड़ी के माध्यम से और चौथा हवाई जहाज के द्वारा। स्पष्ट है कि बैलगाड़ी के द्वारा सड़क से यात्रा करने वाले को जिस मंजि़ल पर पहुँचने में 10 वर्ष लगेंगे, उस मंजि़ल पर दूसरा व्यक्ति तो वायुयान के द्वारा शायद 5 घंटों में ही पहुँच जायेगा। अत: चींटी मार्ग से जाने में कई वर्षों का अन्तर पड़ जाता है। इसी प्रकार, अध्यात्म में प्यादे, घुड़सवार, रथी, महारथी और अतिरथी अलग-अलग गति वाले पुरूषार्थी हैं, दूसरे सब नम्बरवार पुरूषार्थ अनुसार हैं।कुछ लोग ऐसे हैं जो छोटी-छोटी बातों में अपना समय व्यर्थ गँवाते रहते हैं। इसलिए अधिक समय से आये हुए होने के बावजूद भी वे पीछे रह जाते हैं। उनका समय बरबाद हो जाता है। अत: प्रश्न उठता है कि वे कौन-कौन सी मुख्य बातें है जिनके कारण दीर्घ समय पुरूषार्थ के लिए छोटा हो जाता है अथवा वे कौन-से विघ्न हैं जिसके कारण व्यक्ति तीव्र पुरूषार्थ नहीं कर सकता और उसकी गति साधारण से भी मन्द हो जाती है। यहां हम उनमें से कुछेक का उल्लेख करेंगे…

आलस्य
आलस्य मनुष्य का बहुत ही समय खराब करता है। कभी शारीरिक कारणों से और कभी किन्हीं मानसिक कारणों से मनुष्य यह सोचता है कि अभी मैं यह कार्य नहीं कर सकता। उसे विश्राम और निद्रा अधिक प्रिय हो जाते हैं। वह मेहनत से बचना चाहता है। उसके मन में यह सूक्ष्म भावना बनी रहती है कि कार्य न करना पड़े तो अच्छा। आगे बढऩे का अवसर मिलने पर भी वह अपनी सुस्ती की वजह से आगे नहीं बढ़ पाता। प्रात: अमृतवेले चुस्त होकर योग मेें नहीं बैठता बल्कि आलस्य शय्या पर पड़ा रहता है। सोचता है, थोड़ा और सुस्ता लूँ, योगाभ्यास तो बाद में भी कर सकता हँू। शरीर द्वारा सेवा करने के बजाय वह दूसरों से सेवा लेना अधिक पसन्द करता है और इस प्रकार, अपने जीवन को सफल नहीं कर पाता। मान लीजिये कि किसी व्यक्ति को ज्ञान और योग के इस पुरूषार्थ रूपी मार्ग पर आये 50 वर्ष हुए हैं। यदि उनमें से 5 वर्ष तक बार-बार आलस्य के वश होने के कारण वह तीव्र पुरूषार्थ नहीं कर सका तब उसके तो 50 में से 45 वर्ष ही उसे मिले। पाँच वर्ष तो उसने आराम-पसंदी में और समय हराम करने में लगा दिये। इस प्रकार, उसने 5 वर्ष का अनमोल समय गँवा दिया।

अलबेलापन
कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके स्वभाव में गंभीरता बिल्कुल नहीं होती या कम होती है। वे किसी महत्त्वपूर्ण बात को भी ठीक तरह महत्त्व नहीं देते। हर बात में सोचते हैं कि ‘क्या फर्क पड़ता है’! जब उनको यह कहा जाता है कि सृष्टि का महाविनाश निकट भविष्य में होने वाला है इसलिए योगयुक्त अवस्था धारण करने के लिए मेहनत करने की आवश्यकता है, तो वे कहते हैं -”अरे यार, सब-कुछ हो जायेगा; तुम चिन्ता मत करो। सारा समय योग थोड़ा ही करना है! हम तो सुखपूर्वक चलेंगे फिर जो कुछ होगा सब देखा जायेगा। सभी लोग सतयुग में थोड़े ही जायेंगे! जो बाकी दुनिया के साथ होगा, वही हमारे साथ होगा।
हर वक्त योग-योग की बात करना हमारे मन को अखरता है। हम तो ऐश करने वाले जीव हैं और हम से ज़्यादा रस्साकशी नहीं होती”। इस प्रकार अधिक समय मिलने के बावजूद भी उनका काफी समय तो अलबेलेपन के कारण ईश्वरीय कमाई के बिना ही निकल जाता है। अलबेलेपन के स्वभाव वाले व्यक्ति को यदि 50 वर्ष भी इस पुरूषार्थ के लिए मिलें तो उसके कम से कम 8-10 वर्ष तो यह अलबेलापन ही खा जायेगा। 5 वर्ष तो आलस्य, अलबेलेपन में गँवा बैठता है और इस प्रकार शेष उसके 35-37 वर्ष रह जाते हैं।

बीती बातों को याद करना
ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जो भगवान को याद करने की बजाए बीती बातों का चिन्तन करते रहते हैं, ‘अमुक व्यक्ति ने फलाँ अवसर पर फलाँ बात कही थी जो कि बिल्कुल ही घटिया थी; तब उसका व्यवहार बहुत खराब था…’, वे इस प्रकार सोचते रहते हैं। वे इन्हीं बातों को सोचने में समय निकाल देते हैं। ‘पास्ट को पास्ट’ करके वे पास विद् ऑनर्स होने का पुरूषार्थ नहीं करते। परिणाम यह होता है कि जीवन का अनमोल समय भूतकाल के भूतों के वश ही कट जाता है। इस प्रकार 50 वर्षों में जो 22 वर्ष रहे थे, उनमें 7-8 वर्ष तो पुरानी बातों में लग जाते हैं। आगे बढऩे की बजाय वो पुरानी बातों के कब्रिस्तान खोदे खड़े रहते हैं। यदि 22 वर्षों में से 8 वर्ष इस तरह निकल जायें तब बाकी तो केवल14 वर्ष ही बचते हैं।

व्यर्थ बातें सुनना और करना
कुछ व्यक्ति दूसरों से व्यर्थ बातें सुनने का चस्का लेते हैं। जब तक वे इधर-उधर का, किसी के मरने का, किसी के घायल होने का, किसी को व्यापार में हानि होने, किसी की दुर्घटना होने इत्यादि का समाचार नहीं सुन लेते हैं, उन्हें न नाश्ता अच्छा लगता है, न खाना हज़म होता है। मसालेदार बातें सुनने की उनको आदत पड़ जाती है। इस तरह तो गोया उसके तीव्र पुरूषार्थ का समय ही नहीं बचता। इस प्रकार 5-6 वर्ष भी उसके कम हो जायें तो 14 में बाकी 9 वर्ष ही शेष रहते हैं।
इस प्रकार कुछ और भी कारण हैं जिनसे समय की बहुत हानि होती है और दीर्घकाल समय मिलने के बावजूद भी उनका समय बहुत कम रह जाता है।

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