स्व स्मृति में रहने वाला सदैव जो भी कार्य करेगा व जो भी संकल्प करेगा उसमें उसको सदा निश्चय रहता है कि यह कार्य व यह संकल्प सिद्ध हुआ ही पड़ा है अर्थात् ऐसा निश्चयबुद्धि अपनी विजय व सफलता निश्चित समझ कर चलता है। निश्चय ही है, जो ऐसे निश्चित सफलता समझकर चलने वाले हैं उनकी स्थिति कैसी रहेगी? उनके चेहरे में क्या विशेष झलक दिखाई देगी? निश्चय तो सुनाया कि निश्चय होगा विजय हमारी निश्चित है; लेकिन उनके चेहरे पर क्या दिखाई देगा? जब विजय निश्चित है तो निश्चिंत रहेगा ना! कोई भी बात में चिंता की रेखा दिखाई नहीं देगी। ऐसे निश्चयबुद्धि विजयी, निश्चित और सदा निश्चिंत रहने वाले हो? अगर नहीं तो निश्चयबुद्धि 100 प्रतिशत कैसे कहेंगे? 100 प्रतिशत निश्चयबुद्धि अर्थात् निश्चित विजयी और निश्चिंत। अब इससे अपने आपको देखो कि 100 प्रतिशत सभी बातों में निश्चयबुद्धि हैं? सिर्फ बाप में निश्चय को भी निश्चय बुद्धि नहीं कहा जाता। बाप में निश्चयबुद्धि, साथ-साथ अपने आप में भी निश्चयबुद्धि होने चाहिए और साथ-साथ जो भी ड्रामा के हर सेकंड की एक्ट रिपीट हो रही है- उसमें भी 100 प्रतिशत निश्चयबुद्धि हो ना! उसमें संशय की बात नहीं। सिर्फ एक में पास नहीं होना है।
अपने आप में भी इतना ही निश्चय होना चाहिए कि मैं भी वही कल्प पहले वाली, बाप के साथ पार्ट बजाने वाली श्रेष्ठ आत्मा हूँ और साथ-साथ ड्रामा के हर पार्ट को भी इसी स्थिति से देखें कि हर पार्ट मुझ श्रेष्ठ आत्मा के लिए कल्याणकारी है। जब यह तीनों प्रकार के निश्चय में सदा पास रहते हैं, ऐसे निश्चयबुद्धि ही मुक्ति और जीवन मुक्ति में बाप के पास रहते हैं। ऐसे निश्चयबुद्धि को कब क्वेश्चन नहीं उठता। क्रक्रक्यों, क्याञ्जञ्ज की भाषा निश्चयबुद्धि की नहीं होती। क्यों के पीछे क्यू लगती है; तो क्यू में भक्त ठहरते, ज्ञानी नहीं। आपके आगे तो क्यू लगनी है ना! क्यू में इंतज़ार करना होता है। इंतज़ार की घडिय़ां अब समाप्त हुई। इंतज़ार की घडिय़ां हैं भक्तों की। ज्ञान अर्थात् प्राप्ति की घडिय़ां, मिलन की घडिय़ां। ऐसे निश्चयबुद्धि हो ना! ऐसे निश्चयबुद्धि आत्माओं की यादगार यहां ही दिखाई हुई है। अपनी यादगार देखी है? अचल घर देखा है? जो सदा सर्व संकल्पों सहित बापदादा के ऊपर बलिहार हैं उन्हों के आगे माया कब वार नहीं कर सकती। ऐसे माया के वार से बचे हुए रहते हैं। बच्चे बन गये तो बच गये। बच्चे नहीं तो माया से भी बच नहीं सकते। माया से बचने की युक्ति बहुत सहज है। बच्चे बन जाओ, गोदी में बैठ जाओ तो बच जायेंगे।
पहले बचने की युक्ति बताते हैं, फिर भेजते हैं। बहादुर बनाने लिए ही भेजते हैं, हार खाने के लिए नहीं, खेल खेलने के लिए, जब अलौकिक जीवन में हो, अलौकिक कर्म करने वाले हो, तो इस अलौकिक जीवन में खिलौने सभी अलौकिक हैं जो सिर्फ इस अलौकिक युग में ही अनुभव करते हो। यह तो खिलौने हैं जिससे खेलना है, न कि हारना है।