अलंकारों को धारण कर अपना अलंकारी स्वरूप बनायें…

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टाइम पर, परिस्थिति के समय पर ही धारणा नहीं रहती है तो ये तो ऐसी बात हुई कि वैसे मेरे पर्स में सभी बिमारी की दवा रहती है, लेकिन जब बिमार हो जाता हूँ तो तभी गुम हो जाती है। तो जब ऐसी बात आती है पता है ना, अब तो आप अनुभवी बन गये हैं ना। जिसके साथ रहते हैं, कब,कहाँ से गोली आयेगी पता है ना! अब ब्राह्मण परिवार में भी हम पहचान गये कि एक-दो से बात कब आती है। तो इतना डिटैच रहें, इतना अलौकिक रहें जो सेफ भी रहें और फिर खुद भी दृढ़ता कर लेते हैं कि बात जब आये तब मुझे ज्ञान स्वरूप, गुणमूर्त रहना है।

भौतिक दुनिया में मूल तीन रंग हैं। लाल, नीला और पीला। मूल रंग हैं तीन। और तीन रंग से आज कितने रंग के शेड बने हैं। 150 से भी ज्य़ादा शेड्स बने हुए हैं। तो मूल मैं आत्मा सात गुणों का स्वरूप हूँ। शांति का गुण आयेगा, अपने आप धीरज, शीतलता, सौम्यता अपने आप आयेगी, प्रेम स्वरूप बनेंगे, अपने आप शुभ भावना, सहयोग, भाईचारा सब आ जायेगा। तो संगमयुग में हम सात गुणों का स्वरूप बनते हैं। बाबा उन गुणों का सागर है, हम इन गुणों का स्वरूप हैं। तो सिर्फ रिपीट नहीं करना है। रोज़ साइलेंस में बैठकर अपने आप को याद दिलाते हैं कि मैं वास्तव में शांत स्वरूप आत्मा हूँ, प्रेम स्वरूप आत्मा हूँ, शक्ति स्वरूप आत्मा हूँ। ये वास्तविकता है। वो पक्का करना है। इसलिए होवन हार देवता सर्वगुणों से सम्पन्न स्वरूप उसके लिए अभी हम पुरुषार्थ करते हैं कि मैं आत्मा सात गुणों का स्वरूप हूँ। एक गुण अनेक गुणों को साथ ले आता है। जैसे एक अवगुण अनेक अवगुणों को ले आता है। सोलह कला सम्पूर्ण बनाने के लिए संगमयुग में एक ही कला को साध्य करना है, सिद्ध करना है। हर कर्म कला युक्त बने माना श्रेष्ठ विधि से हम करें, उसके लिए बाबा ने कहा एक कला बुद्धि योग की कला। जब चाहो, जहाँ चाहो, जिस स्थिति में चाहो, जितना समय चाहो, बुद्धि को स्थित कर सकें। देखो बुद्धि अच्छी है तो हर कर्म अच्छे होंगे। बुद्धि बिगड़ती है तो हर कर्म बिगडऩे लगते हैं। क्यों हम योग करते हैं ताकि हमारे कर्म अच्छे हों। बुद्धि शुद्ध एकाग्र है तो सब कर्म आपके अच्छे बनेंगे। इसलिए बाबा कहते हैं अन्तिम पेपर कौन-सा होगा। उस क्षण आप स्थित हो गये तो आप पास हो गये।
बाबा मिसाल देते हैं कि यहाँ ब्रेक लगानी है तो वहाँ जाकर लगी तो फेल। बुद्धि फुल स्टॉप तो फुल स्टॉप। डिटैच, डिटैच। ये प्रैक्टिस करनी है। बुद्धि योग की कला, सम्पूर्ण निर्विकारी बनना है तो मूल एक अभ्यास बाबा सिखाते हैं, देही अभिमानी बनो। देह अभिमान सर्व विकारों की जड़ है। देह अभिमान में आये तो देह की आकर्षण होगी। देह सम्बन्धों का आकर्षण, देह के वैभव पदार्थों का आकर्षण, सब विकार आ जाते हैं। इसलिए देह अभिमान नहीं। इस बीज को ही खत्म करना है तो विकार का अंश भी नहीं रहेगा। डबल अहिंसक, सबसे बड़ी हिंसा किसको कहते हैं बाबा- काम कटारी को। ब्रह्मचर्य बाबा ने धारण कराया। क्योंकि कोई भी आत्मा को उनकी सत्यता, शुद्धता से चलित करना सबसे बड़ा घात करना है। ब्रह्मचर्य की धारणा बाबा ने कराई।
ब्राह्मण जीवन की शुरुआत ब्रह्मचर्य से। बाबा के हम बच्चे साधारण नहीं हैं। हम इसी बल से जीतेंगे। पवित्र योगी बनकर हम रोज़ ज्ञान-योग करते हैं। क्योंकि हमारा लक्ष्य है सम्पूर्ण निर्विकारी बनना। अंश भी नहीं रहे। रोज़ बाबा कहते हैं क्रोध नहीं करना है, लोभ में नहीं फंसना है, मोह में नहीं फंसना है। बाबा कहता है डबल अहिंसक, किसी को दु:ख नहीं देना है। दु:ख देना शब्दों से, भावनाओं से, आत्मा को पहुंचता तो है ना! ये कभी मुझे ऊंची नज़र से नहीं देखते। ये कभी दिल से रिस्पेक्ट नहीं करते तो ये दु:ख देना है। हमें मन, वचन, कर्म से सुख देना है। क्योंकि सुख देंगे तो सुख मिलेगा। ये कर्म सिद्धान्त है। और वो इसमें किसी को माफ नहीं। प्यार देंगे तो प्यार मिलेगा, रिस्पेक्ट देंगे तो रिस्पेक्ट मिलेगा। हम दाता के बच्चे मास्टर दाता हैं। हमें देना है। छोटे-बड़े, युवा-बूढ़े, बीमार, गरीब, साहूकार, नौकर, स्त्री पुरुष हमें सभी को सुख देना है, स्नेह देना है, रिस्पेक्ट देना है। हम बाबा(भगवान) के प्रतिनिधि हैं। हम कॉमन मनुष्य नहीं हैं। हमें अपने चेहरे और चलन से जो बाबा के गुण हैं वो दूसरों को अनुभव कराने हैं। और मर्यादा पुरुषोत्तम बनने के लिए सबसे उत्तम मर्यादा बाबा ने हमें सिखाई अमृतवेले उठना। जिनकी सुबह सफल, सारा दिन सफल। दिनचर्या की शुरुआत अमृतवेले से। हर दिन सफल तो जीवन सफल, पूरा ड्रामा सफल। पूरे ड्रामा को सफल करना है तो संगमयुग को सफल करना है।
बाबा कहते हैं ना, जो अमृतवेले अपने आप को बाबा के प्यार से, शक्ति से भर लेते हैं तो फिर दिन में कहीं भी उनकी नज़र डूबेगी नहीं। बुद्धि कहीं फंसेगी नहीं। वो याद का रस बाबा का प्यार भरे तो देखो देवता बनना सहज है ना। मुश्किल बाबा ने नहीं सिखाया। लक्ष्य है तो कोई मुश्किल नहीं, खुद की दिल नहीं है तो कदम-कदम पर मुश्किल है। बस अपने संकल्प की बात है।
टाइम पर, परिस्थिति के समय पर ही धारणा नहीं रहती है तो ये तो ऐसी बात हुई कि वैसे मेरे पर्स में सभी बिमारी की दवा रहती है, लेकिन जब बिमार हो जाता हूँ तो तभी गुम हो जाती है। तो जब ऐसी बात आती है पता है ना, अब तो आप अनुभवी बन गये हैं ना। जिसके साथ रहते हैं, कब,कहाँ से गोली आयेगी पता है ना! अब ब्राह्मण परिवार में भी हम पहचान गये कि एक-दो से बात कब आती है। तो इतना डिटैच रहें, इतना अलौकिक रहें जो सेफ भी रहें और फिर खुद भी दृढ़ता कर लेते हैं कि बात जब आये तब मुझे ज्ञान स्वरूप, गुणमूर्त रहना है। अलंकार छूटना नहीं चाहिए। तभी तो हमारे अलंकार बाबा कहते हैं विष्णु को दे दिए। क्योंकि बच्चे कभी कमल बनते हैं, तो कभी गदा उठाते हैं। कभी चक्र चलाते हैं, तो कभी शंख। एक साथ धारणा नहीं रहती। तो ये हमारे अलंकार हैं। स्वदर्शनचक्रधारी मुझे बनना है। तो ये है हमारा अलंकारी स्वरूप।

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