हमारा स्वभाव हमारे सुख-दु:ख का कारण

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हम अगर महीनता से देखें तो हमारे सुख-दु:ख का सबसे बड़ा कारण हमारा स्वभाव ही है। अभाव ज्य़ादा कारण नहीं है। लोग अभाव में जी लेते हैं। बुरा स्वभाव खुद के साथ समाज को भी दु:ख देता है। वह ठीक हो जाये तो सुख दे सकता है।
दूसरों का प्रभाव उधार है, मेरे काम का नहीं। ऐसी समझ से दूसरों का प्रभाव मन पर कम पड़ता है।

हमारे सुख-दु:ख, हमारा हित-अहित, शुभ-अशुभ, हमारा आरोग्य-हमारे रोग, इन सभी द्वन्द्वों का मूल कारण क्या है? कर्म सिद्धान्त तो यही डंके की चोट पर कहता है ‘सुखस्य दु:खस्य ना कोअपि दाता’। सुख और दु:ख का कोई और दाता नहीं होता। यह भी एक दर्शन है। ‘श्रीमद्रामचरित मानस’ में हम सभी के सुख-दु:ख की चार जड़ों का वर्णन है। ‘काल कर्म सुभाऊ गुण घेरा’। हम सब इन चारों से घिरे हैं। कभी हम काल के कारण, कभी हमारे कर्म, कभी गुणों और कभी स्वभाव के कारण सुखी हैं, दु:खी हैं। काल एक बहुत बड़ा दंड है, पर निराश होने की ज़रूरत नहीं। ‘भगवद्गीता’ ने तो कहा, संसार में एक ही वस्तु निश्चित है, और वो है मृत्यु यानी काल और दूसरा है कर्म। आइये, हम इन्हें समझने की कोशिश करते हैं…

आज विश्व पर जो संकट है, उसके कारण भी ‘मानस’ के दर्शन में यह चार हो सकते हैं। एक तो, काल कारण है। कलि का इतना प्रभाव है कि अपने स्वार्थ के लिए कभी-कभी आदमी क्रूरकर्मी हो जाता है। सरलता से समझना हो तो सर्दी के दिनों में हमें ठंड लगती है; गर्मी में गर्मी; वर्षा में नमी रहती है। सब कालाधारित है। सब सम्यक रहे तो सुख; असम्यक रहे तो दु:ख।
दूसरा हमारा कर्म। काल हमारे अधीन नहीं है। हम गर्मी के दिनों को वर्षा में नहीं बदल सकते, लेकिन कर्म से जो सुख-दु:ख आते हैं, वे हमारे हाथ में हैं। हम सत्संग और संवाद करके एक विवेक जागृत करें… कौन से कर्म करें? कैसा कर्म करें? कैसा न करें? प्रत्येक कर्म के लिए हमें सावधान होना चाहिए और यह सावधानी आयेगी विवेक से, कि क्षीर क्या है? पानी क्या है? शुभ-अशुभ क्या है? यद्यपि कर्म की गति गहन है। रजोगुणी व तमोगुणी कर्म विनाश की ओर ले जाते हैं। सतोगुणी कर्म, अंततोगत्वा बंधन तो देता है, लेकिन विश्राम की ओर ले जाता है।
तीसरा सूत्र है गुण। संस्कृत में गुण का अर्थ होता है डोरी। डोरी का सर्जन क्यों हुआ? कुछ बांधना है तो डोरी चाहिए। ये जगत गुणमयी है। हम निर्गुण नहीं हो पायेंगे। गुण भी सुख-दु:ख का कारण है।
काल का अपना अस्तित्व है। कर्म भी गहन गति का क्षेत्र है। प्रारब्ध-कर्म, संचित-कर्म, वर्तमान-कर्म, अकर्म-विकर्म, निष्कर्म; हम अल्पजीवी उसकी सही व्याख्या कैसे प्राप्त करें? लोग कहते हैं कि मैं जानता था, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए, फिर भी पता नहीं कैसे ये कर बैठा! किसने करवाया? कौन है निमित्त कारण? गहन है गुण। कुछ बंधन सुखद होते हैं और इनमें से एक सुखद बंधन है सत्वगुण। सत्वगुण में हमारी समझ में तीन वस्तु हैं। ‘उपनिषद’ का षत्, ‘गीता’ का सम् और ‘रामचरित मानस’ का सब, तो गुण के लिए हम स्वतंत्र नहीं हैं, इसलिए गोस्वामी जी कहते हैं कि जिसने मुझे बांधा है वही मुझे छोड़े, और कोई उपाय नहीं।
हम जिसपर बल देना चाहते हैं, वो है ‘सुभाउ’। हमें लगता है कि हमारे सुख-दु:ख का सबसे बड़ा कारण है, हमारा स्वभाव। अभाव ज्य़ादा कारण नहीं है। लोग अभाव में अच्छे से जी लेते हैं, पर कई लोगों को दूसरों का प्रभाव असहनीय लगता है। ईर्ष्या व द्वेष से वे दु:खी हैं। कोई अभाव से दु:खी है, कोई प्रभाव से दु:खी है। इससे मुक्त होने का उपाय क्या? बहुधा अभाव को हम पुरुषार्थ करके कम कर सकते हैं। दूसरे का प्रभाव उधार है, मेरे काम का नहीं। ऐसी समझ आने पर दूसरों का प्रभाव भी मन पर कम पड़ता है। हमें खुद के स्वभाव की तलाश करनी चाहिए। और बुरा स्वभाव खुद को तो दु:ख देता है, समाज को भी दु:ख देता है। वह यदि ठीक हो जाये तो सुख भी दे सकता है। ‘रामचरितमानस’ में प्रभु के स्वभाव की बहुत चर्चा है,
‘जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला,
सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला।

जिसका स्वभाव दुश्मन को भी प्रिय लगता हो। आओ हम अपने स्वभाव की तलाश करें। राम का स्वभाव तो दुश्मनों को भी प्रिय है। ये तो हमारे मित्र हैं; ये हमारा हित करने वाले हैं। उनके अनुकूल हमारा स्वभाव हो जाये तो कर्म के हिसाब से आया दु:ख, पीड़ा, रोग, विपत्ति, झेलने की हमें बड़ी ताकत मिलेगी। जीवन में उजाला ही ज़रूरी नहीं है, थोड़ा अंधेरा भी ज़रूरी है। पर हम अपने स्वभाव को सरल व सौम्य कैसे बनायें, ये अपने आप में कुछ करने की दिशा में प्रेरित करता है।
अगर हम स्वभाव को विच्छेद करें: तो स्व माना स्वयं, भाव माना हमारा दृष्टिकोण। वास्तव में हरेक आत्मा अपने आप में सरल व श्रेष्ठ भाव से परिपूर्ण है। पर बाह्य प्रभाव से प्रभावित मनुष्य उसे बाहर नहीं ला पाता। परिणामस्वरूप वो सरल व सत्व नहीं रह पाता। जहाँ सरलता व सत्यता न हो, वहाँ सुख की कामना करना बेमानी ही होगी ना! बस इतनी बात को विवेक संगत हम समझ लें कि सारे विश्व की सभी आत्माएं सत्, चित् आनंद के रूप में ही हैं, सबको अपना-अपना रोल मिला हुआ है। ये स्मृति निरंतर हमारे मानस पटल पर हो तो दु:ख से मुक्त हो सकते हैं।

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