तड़प थी मुझे कोई बन्धनों के चंगुल से निकाले

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यहाँ आने से पहले मुझे ऐसा लगता था कि जैसे चूहा किसी चूहेदानी में फँस जाये और निकल न पाये अपने आप। तो इस दुनिया में मैं पता नहीं कैसे फँस गया, इस चक्रव्यूह में। अब इससे निकलूं कैसे?

मैंने जो परमात्मा के बारे में पढ़ा व सुना… वो इन नज़रों से देखा

वो कौन थे, सृष्टि के आदि पिता प्रजापिता ब्रह्मा, प्रथम पुरुष। जीवन में व्यक्ति को और क्या चाहिए! लेकिन मैंने ऐसे मूर्तियों को देखा, बाबा को देखा, मम्मा को देखा, उन्होंने जो कुछ मेरे साथ किया वो तो अविस्मरणीय है। भूल नहीं सकते हम उसको। वो मूर्तियां मेरी आँख से ओझल कभी भी हो नहीं सकती। लेकिन मैं कोई सिर्फ शरीर रूपी बाहर की जो पार्थिव देह है उस मूर्ति की बात नहीं कर रहा, गुण मूर्ति, ज्ञान मूर्ति, योग मूर्ति वो जो उनकी महानता थी उसकी बात कर रहा हूँ। शुरू से लेकर वो एक लम्बी कहानी है, लम्बी दास्तान है, लेकिन एक थोड़ा-सा हिस्सा उसका आज आपको बताना चाहता हूँ।1952 में जब पहली बार मैं सम्पर्क में आया तो उस कहानी को शुरू से नहीं बता रहा लम्बा करके वो तो कई दिन लग जायेंगे। लोग आते हैं कई मधुबन में ये देखने के लिए, चेक करने के लिए कि ये बहन जी जिसने हमें कोर्स कराया है, वो कहती है भगवान आते हैं ब्रह्मा बाबा के तन में, लेकिन ये बाबा कौन है, कैसे उनके तन में आते हैं, मैं ये देखने के लिए नहीं आया। उनसे मिलने के लिए आया। यहाँ आने से पहले मुझे ऐसा लगता था कि जैसे चूहा किसी चूहेदानी में फँस जाये और निकल न पाये अपने आप। तो इस दुनिया में मैं पता नहीं कैसे फँस गया इस चक्रव्यूह में। अब इससे निकलूं कैसे? तरीका आता नहीं है, फँस गया कि ये क्या है, ये आदमी ये कर रहा है, वो आदमी वो कर रहा है, वो आदमी वो कर रहा है मतलब क्या है? मैं समझ नहीं सका।
बहुत तड़प रहा था, रोता था और कहता था हे प्रभु, हे भगवन आप मुझे निकालो। चूहेदानी से चूहा खुद नहीं निकलता है। उसको कोई निकालने वाला होता है। मुझे कोई निकालो इससे, मैं आपको ढूंढ रहा हूँ, मैं नहीं पहचानता आपको। लेकिन आप तो जानते हो मैं आपको याद कर रहा हूँ। कहा जाता है भगवान दयालु हैं, कृपालु हैं आप दया और कृपा करो। ऐसे मेरे मन में विचार चलते रहते थे। लेकिन जब आया तो उन दिनों में ये जो ईश्वरीय विश्व विद्यालय था ये भरतपुर कोठी में था, अभी वहाँ होटल बना हुआ है। पहले-पहले मैं वहाँ गया। मैंने क्या देखा कि जिसको मैंने कल्प वृक्ष में देखा था ब्रह्मा बाबा को, तो जो भरतपुर कोठी से नीचे सड़क तक एक सड़क आती थी क्योंकि ये कोठी बहुत ऊंची थी। उससे सड़क तक आने का काफी बड़ा रास्ता था। वो रास्ता ठीक नहीं था, उसमें पत्थर ही पत्थर थे। और लूज़ पत्थर थे। कोई व्यक्ति वहाँ पाँव रखे लुढ़क जायेगा। पत्थर के साथ खुद भी लुढ़कता हुआ नीचे पहुंचेगा। तो बाबा ने निक्कर पहनी हुई और बाबा के साथ कुछ भाई निक्कर पहने हुए और उस सड़क को ठीक कर रहे। जिसको मैंने कल्प वृक्ष में देखा था बैठे हुए, पालथी मारकर योग लगाते हुए, आज उनको निक्कर में देखा। जो सड़क बना रहे थे। कितनी उमर होगी बाबा की, कम से कम 75 साल तो होगी उस टाइम। ये 1952 की बात है। तो उस समय उस सड़क को बना रहे थे। वो कोमल हाथ, बच्चे आयें उनको कोई तकलीफ न हो। कोई बच्चा गिर न जाये, किसी के पाँव में मोच न आ जाये। कैसा ख्याल करता है। और वो खुद पत्थर उठा-उठा कर ठीक कर रहा है।
मैं खड़ा हो गया, मेरी समझ में नहीं आया कि मैं क्या करूँ? मैं गाड़ी से आया था, चेहरा मेरा मिट्टी-मिट्टी से भरा हुआ था। सिर भी और चेहरा भी। और सोचा कि जाके नहाऊं-धोऊं फिर आऊं। एक तरफ ये हुआ कि बाबा ये कार्य कर रहा है और मैं चला जाऊं, ये ठीक नहीं है। ये तो हमाकत है। तो क्या करूँ? मैंने सोचा कि मैं भी इसमें लग जाऊं। बाकी बात बाद में रही। बाबा ने मुझे कहा कि बच्चे जाओ स्नान करो, तैयार हो फिर मिलेंगे, भेज दिया मुझे।
अब पहली-पहली आज्ञा थी बाबा की, मैं उस आज्ञा को टालूं, मैं तो धर्मसंकट में फँस गया। अगर उनकी आज्ञा को टालता हूँ तो भी मैं दोषी हूँ, और अगर मैं उनको कार्य करते हुए देखकर चला जाता हूँ फिर भी दोषी हूँ, क्या करूँ! लेकिन उन्होंने मुखारविंद से कहा कि तुम जाओ तैयार हो। तो मेरा फायदा भी उसी में था। शायद इसीलिए मान गया। तो मैं चला गया। तो ये एक पहली महानता मैंने देखी कि और कई आश्रमों में मैं गया, कई संतों महात्माओं से मिला, कई जगह पर आदेश, उपदेश सुने लेकिन ये इस आयु में भी पत्थर उठा-उठा कर ठीक कर रहा है निक्कर पहन कर। ये है महानता। और गीता में है कि हे अर्जुन, मुझे तीनों लोकों में कुछ नहीं चाहिए। भगवान को क्या चाहिए! कुछ भी नहीं चाहिए,लेकिन फिर भी मैं आता हूँ। और आके कर्म करता हूँ, क्योंकि कर्म करके अगर मैं न दिखाऊं कि ठीक कर्म क्या हैं तो लोग कैसे सीखेंगे? तो मुझे कर्म करके दिखाना पड़ता है कि कर्म कैसे योगयुक्त होकर करने चाहिए। मैंने कहा ये है भगवान के आने का कारण, जो लिखा हुआ है उसमें। आज मैं उस बात को प्रैक्टिकली देख रहा हूँ। मुस्कुराते हुए ऐसा नहीं कोई व्यक्ति सोचे अरे, मैं एक इतना बड़ा जवाहरी था। मेरे पास कारें, बसें, नौकर-चाकर सब थे। महलमाड़ी थी और आज ये हालत है कि मैं खुद पत्थर उठा रहा हूँ। कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो इस काम को करे। मुझे करने पड़ जाता है। हम लोगों में से बहुतों को ऐसा होता है। जब कोई ऐसा काम करना पड़ जाता है जो हम समझते हैं कि ये हमें नहीं करना चाहिए, कोई और होना चाहिए। हम कहते हैं कि ये क्या मुसीबत है, यहाँ इतने सारे लोग हैं कोई नहीं करता है। मुझे करना पड़ता है। खुशी से बाबा कर रहा है। आगे आपको बताऊंगा बाबा ने मुझे क्या एक्सप्लेनेशन दिया उसका।

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