मनकी बातें – राजयोगी ब्र.कु. सूरज भाई

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प्रश्न : अगर हम योग का अच्छा अनुभव करना चाहते हैं, अच्छी एकाग्रता चाहते हैें, परमात्मा से मिलन की अच्छी अनुभूति करना चाहते हैं तो क्या आधार है? हमें क्या-क्या करना चाहिए? ऐसी कौन-कौन सी चीज़ें हैं जो हमें मदद करती हैं योग मार्ग में?
उत्तर : हमें इसमें निराश न होकर निरन्तर अभ्यास, मान लो किसी को योग अभ्यास में सफलता प्राप्त नहीं हो रही, तो वो तीन दिन के लिए हर घंटे में पाँच बार अभ्यास कर लें- मैं आत्मा हूँ। चाहे पाँच सेकण्ड, या दस सेकण्ड अभ्यास करें बस अपने आत्म स्वरूप को देखें और मैं आत्मा पीसफुल हूँ, शांत स्वरूप हूँ, बस पाँच बार कर लें तो एक ही दिन में बहुत अच्छे अनुभव हो जायेंगे। और दूसरे दिन और बढ़ा दें। ये सारा दिन में 108 बार कर लेंं। तीसरे दिन भी 108 बार कर लें। तो योग की जो सूक्ष्मता है, योग से जो गहन शांति की अनुभूति होती है उसका बहुत अच्छा एक्सपीरियंस हो जायेगा। लेकिन इसके पीछे कुछ धारणायें तो परमआवश्यक हैं जिससे हमें योग की गहराई प्राप्त होती रहे, क्योंकि योग संसार की सबसे गुह्यतम विद्या है। इसमें बहुत सूक्ष्मतायें हैं। इसमें बहुत सूक्ष्म ते सूक्ष्म और महान से महान मनोविज्ञान आ जाता है। इसमें हम एक-दूसरे के मन के भावों को कैच कर सकते हैं। एक-दूसरे के संकल्पों को बदल सकते हैं और उन्हें नये डायरेक्शन भी दे सकते हैं।
जैसे हम चर्चा करते आ रहे हैं -अनेक जगह हम अपने वायब्रेशन फैलाकर संसार के लिए भी बड़ा सुख देने का कार्य कर सकते हैं। तो कुछ धारणाओं में तो पहली धारणा तो प्युरिटी ही है। भले ही लोग हमारी ये बात सुनकर थोड़ा-सा निगेटिवली भी लेते हैं, नाराज़ भी होते हैं कि ब्रह्माकुमारियों ने ये क्या नया पवित्रता का मार्ग निकाल दिया! लेकिन हम कहना चाहेंगे कि ब्रह्माकुमारियों ने नहीं निकाला, ये भगवान का आदेश हुआ है कि मुझे इस संसार को पवित्र बनाना है। इसलिए हरेक पवित्रता को धारण करें।
तो हम आजकल देख रहे हैं हमारे इस राजयोग के मार्ग पर अनेक कुमार और कुमारियां युवक बहुत आ रहे हैं। कुछ लोगों में तो इम्प्युरिटी बहुत है लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जिनमें पवित्रता भी बहुत है। वो आकर्षित होकर आ रहे हैं राजयोग की ओर। मुझे बहुत लोग मिलते हैं, कन्यायें मिलीं जिनकी चर्चा पवित्रता पर ही थी। जिनका बहुत ध्यान था अपनी प्युरिटी पर, और जो दृढ़संकल्पधारी थे कि हमें किसी भी तरह, हमें कुछ भी सहन करना पड़े, हमें पवित्र जीवन व्यतीत करना ही है। तो ये भगवान की आज्ञा है। तो इसके बिना कोई योगी नहीं बन सकता। क्योंकि योग उससे लगाना है जो पवित्र है, योग उससे लगाना है जो पवित्रता का सागर है, जो सम्पूर्ण है।
तो हमें योग लगाने के लिए स्वयं को पवित्र ज़रूर बनाना होगा। बिना पवित्रता के हम उसे याद तो कर सकते हैं लेकिन बुद्धि एकाग्र नहीं हो सकती, क्योंकि पवित्रता से ही ब्रेन को शक्तियां मिलती हैं। ब्रेन एनर्जेटिक होता है। प्युरिटी, योगी का एक महत्त्वपूर्ण पिल्लर है। इसके बिना अध्यात्म है ही नहीं। अध्यात्म का अर्थ ही है पवित्रता का मार्ग। इसमें थोड़ा समय तो लगेगा, याद करते-करते पवित्र रहने का बल आ जायेगा। कईयों के साथ ये भी हुआ है। कोई ने एक साल में पवित्रता को धारण किए, किसी ने दो साल में किए, किसी ने छह मास में किए लेकिन शक्तिशाली और महान आत्मायें वो ही होती हैं जो तत्काल कर लेती हैं। उनके अन्दर ये पवित्रता एक बहुत बड़ी शक्ति और वरदान के रूप में काम करने लगती है।
दूसरी चीज़ है पवित्र भोजन। पवित्र भोजन में लहसून, प्याज भी नहीं, ज्य़ादा लाल मिर्च भी नहीं और एक सात्विक वातावरण में बनाया गया अन्न, पवित्र और सात्विक व्यक्ति के द्वारा बनाया गया अन्न हमारे योग अभ्यास को बहुत सरल कर देता है। हमें सूक्ष्म स्थिति में ले चलता है तो इसका भी हमें बहुत ध्यान रखना है। लोग ये भी सोचते हैं कि लहसून, प्याज तो दवाईयां हैं, आयुर्वेदिक चीज़ें हैं इससे क्या होगा? देखिए इससे मनुष्य की कामुक वृत्तियां उत्तेजित होती हैं। और हमें बनना ही पवित्र है तो हम इन चीज़ों का सेवन नहीं कर सकते। तो जैसा अन्न वैसा मन। हम जानते हैं देवताओंं को अगर भोग लगाना हो तो हम लहसून, प्याज नहीं डालेंगे, हम अंडे का भोग नहीं लगा सकेंगे। देवताओं को भी पवित्र भोग लगाया जाता है। आजकल जो मान्यता हो गई देवी को बलि चढ़ाने की, ये बिल्कुल गलत परम्परा है। इससे न देवी खुश होती और न स्वयं मनुष्य खुश होता, न सफलता प्राप्त होती। और शुद्ध मन नहीं है, अच्छे वातावरण में भोजन नहीं बनाया गया है तो उसकी एकाग्रता पर असर अवश्य आयेगा।

प्रश्न : तंत्र-मंत्र, जादू-टोना ये सब होता है क्या?
उत्तर :
ये आजकल के दुनिया में एक बड़ा प्रश्न है और कितने तांत्रिक हैं जिनकी रोजी-रोटी चल रही, रोजी-रोटी ही नहीं चल रही अथाह कमाई कर रहे हैं वो। ये तंत्र विद्या अथर्व वेद से निकली विद्या है। इस विद्या को वेदों से नहीं जोड़ा जाता था। जो आचार्य थेे कहते थे इसको हम वेद नहीं कहेंगे, वेद माना एक पवित्र विद्या, आध्यात्मिक विद्या, लेकिन फिर बहुत सारे आचार्यों ने व्यास जी को विवश कर दिया था कि नहीं इसको वेदों का ही हिस्सा बनाया जाये। तो वेदों से निकली हुई विद्या है तो ये विद्या कल्याणकारी थी, ये मनुष्य को सुख देने के लिए थी, उसकी बीमारी हटाने के लिए, कोई भूत-प्रेत की बाधा हो गई उसको समाप्त करने के लिए थी। लेकिन चलते-चलते क्या हुआ जैसे संसार कलियुग आगे बढ़ा, भक्ति आदि ये सब तमोप्रधानता की राह में आगे चलने लगे। हर चीज़ में स्वार्थ और धन आगे आ गया। भलाई करने का लक्ष्य छूट गया, तो इसका मिसयूज़ होने लगा। तो ये विद्या है, ऐसे नहीं कहा जायेगा कि ये विद्या नहीं है।
इसका मिसयूज़ होने की वजह से ये विद्या बदनाम हो गई है और बहुत घरों में ये पहुंच गई है। टीवी में ये आने लगे हैं। जहाँ-तहाँ तो लोग वशीकरण कराने लगे और कई दूसरों को तंग करने में इस विद्या का प्रयोग किया इसलिए इस विद्या को बदनामी मिली है। और इस तरह किसी भी चीज़ का दुरुपयोग ज्य़ादा होता है तो वो विद्या हमेशा नष्ट होने के कगार पर आ जाती है। यही स्थिति हम इस विद्या की देख रहे हैं अब।

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