प्रश्न : मैं धर्मेन्द्र शर्मा, रोहतक से हूँ। परमात्मा सर्वव्यापी हैं ये हम मानते आये हैं लेकिन ब्रह्माकुमारियां परमात्मा को सर्वव्यापी नहीं मानती। तो क्या इसको सिद्ध करने के लिए आप कोई ठोस तर्क दे सकते हैं?
उत्तर : इसके बहुत सारे रहस्य हैं। जिधर देखता हूँ उधर तू ही तू है। श्रीकृष्ण के भक्त श्रीकृष्ण को जहाँ-तहाँ देखते हैं। पर प्रैक्टिकल में ये होता नहीं है। राधे के समय पर भी राधा ही राधा। सब जगह राधा ही राधा है। राम के भक्त सब जगह राम ही राम है। लेकिन प्रैक्टिकल में वो मनुष्य में भेदभाव रखते हैं। क्या दूसरे समुदाय से नफरत करने वाले लोग ये अभ्यास करते हैं कि सब कृष्ण ही कृष्ण, कृष्ण सबमे है। नहीं करते। उनसे वो नफरत करते हैं। महत्वपूर्ण बात, शंकराचार्य जी ने अद्वैतवाद की स्थापना की थी। अब से कोई कहता है साढे तेरह सौ, पंद्रह सौ वर्ष पहले इसी अन्तराल में कभी की थी उन्होंने। उसमें ये था कि केवल एक ही है। एक ही ब्रह्म है सर्वत्र। आत्मा जैसी कोई चीज़ ही नहीं है। सबके अन्दर वो ही है। मेरे अन्दर भी, तेरे अन्दर भी, उसके अन्दर भी। कुत्ते में भी, बिल्ली में भी, शेर में भी, गाय में भी वो ही है, आत्मा कुछ नहीं। यहीं से सर्वव्यापकता का सिद्धान्त प्रारम्भ हुआ। रामानुजाचार्य, उसने सिद्धान्त में परिवर्तन कर दिया। फिर माधवाचार्य, वल्लभाचार्य, निम्बार्काचार्य उन्होंने इन सिद्धान्तों में परिवर्तन किया। फिर स्वामी दयानंद सरस्वती आये उसने तो बिल्कुल परिवर्तन कर दिया,त्रैतवाद।
आत्मा अलग, परमात्मा अलग, प्रकृति अलग। तीनों बिल्कुल अलग-अलग सत्तायें हैं। अविनाशी हैं। बस सभी जगह से एक ही बात मिस रही कि परमात्मा का धाम कहाँ है। धाम का ज्ञान न होने के कारण सभी ने मान लिया कि वो सर्वत्र है। इस शरीर में आत्मा भी है और परमात्मा भी है। परमात्मा के होने की ज़रूरत क्या है? ये शरीर तो आत्मा से संचालित होता है। वो इसका तर्क दे देते हैं कि परमात्मा सबके कर्म देखता है, उसको फल देता है। इसकी कोई ज़रूरत नहीं। ये ऑटोमेटिक है। ये हमारे ब्रेन के द्वारा संचालित होता है सबकुछ। अगर हम एक जगह बैठकर सैटेलाइट के माध्यम से सारे संसार को देख सकते हैं तो परमात्मा जो ऑलपॉवरफुल है, निराकार है, जो देह के बंधनों से मुक्त है, जो सृष्टि का बीजरूप है, ऊपर बैठकर वो सबकुछ देख सकता है। तो वास्तव में उसका धाम परमधाम ही है। गीता में भी ये शब्द आया है। और हमारे वेदों में भी ब्रह्मलोक की चर्चा है। लेकिन भगवान को सर्वव्यापी कहने के कारण ब्रह्मलोक उसका धाम है ये बात मिस हो गई। अब भगवान जब इस धरा पर आये तो उन्होंने बल्कि हँसते-हँसते कह दिया तुम मुझे गाली देते आए हो कि मैं सब में हूँ, सुअर में, कुत्ते में, गंदगी में, सबमें फैला हूँ मैं? तुम मुझे गाली देते आते पाप आत्मा बन गए हो। मेरा धाम तो बहुत पवित्र है। भावना तो शुद्ध थी पर गड़बड़ तो हो गई। जो परम पवित्र है उसका धाम भी तो परम पवित्र ही होना चाहिए। यहाँ गंदगी में क्यों रहेगा भला! स्वयं भगवान के महावाक्य सुना रहा हूँ- क्रमैं अगर हर जगह होता तो तुम्हारा ये बुरा हाल क्यों होता।ञ्ज मेरे होते तुम दु:खी हो जाते तो मेरा महत्व क्या रहा! मैं शांति का सागर और तुम अशांति में जीवन व्यतीत करते तो मेरा महत्व क्या हुआ! तो उसने स्वयं आकर बताया मैं सब जगह नहीं हूँ, मैं ज्योति स्वरूप हूँ। मेरा धाम भी परमधाम है, वहीं से मैं आता हूँ। अब इस तर्क को लीजिए, हमारे हिन्दु धर्म में सभी जगह सब लोग इसको मानते हैं कि जब-जब धर्म की अति ग्लानि होती है तब-तब भगवान इस धरा पर अवतरित होते हैं। तो कहाँ से? छोटी-सी बात, उतरना यहीं है तो अवतरण शब्द ही गलत हो गया। कोई कहते हैं यहीं है प्रगट हो गये। जैसे नर्सिंग रूप में प्रगट हो गये। उसको प्रगट होना कहा जायेगा, अवतरित होना नहीं। अवतरित होना माना वो कहीं से नीचे उतरते हैं। तो उनका धाम है। संसार में हर व्यक्ति, हर धर्म के व्यक्ति को हमने देखा खुदा कहेंगे ऊपर को, अंगुली ऊपर करेंगे, आम भाषा में ऊपर वाला जाने सब। तो ये ऊपर वाला कौन है, वो कहाँ है? हमारी नैचुरल जो फीलिंग्स हैं वो भी ऊपर को जाती हैं कि हे प्रभु! जाने या न जाने उसको और वो कहीं ऊपर है ये फीलिंग अवश्य है। इसीलिए सत्य तो यही है सभी शरीरों में निवास है आत्माओं का। परम आत्मा अलग चीज़ है। जो ब्रह्म लोक में निवास करते हैं सबसे ऊपर। और वहीं से हम सब इस धरा पर आये हैं। और वहीं से वो भी अवतरित होते हैं।
प्रश्न : मैं अंशु जैन, दिल्ली से हूँ। पिछले तीन वर्षों से ईश्वरीय विश्व विद्यालय से मैं जुड़ी हुई हूँ। लेकिन ये जो पुराने संस्कार हैं ये परिवर्तित नहीं हो रहे हैं। संस्कारों का परिवर्तन सहज कैसे हो और यदि हमारे नज़दीकी व्यक्तिभी बुरे संस्कारों से, आदतों से ग्रस्त हों तो क्या हम उसे भी परिवर्तित कर सकते हैं?
उत्तर : हम एक चीज़ पर विचार करेंगे। यदि संस्कार अच्छे से बुरे हो गये हैं तो बुरे से अच्छे भी हो सकते हैं। कुछ ऐसे लोग हैं जो अपने क्रोध के संस्कार को जीत चुके हैं, वो सॉफ्ट हो गये हैं, नम्र हो गये हैं। कुछ लोग ऐसे हैं जिन्होंने अपने जि़द्द करने के संस्कार को तिलाजंलि दे दी और वो बहुत ही सॉफ्ट होकर मिलनसार हो गये। तो संस्कार तो बदलते हैं। अब इसके लिए है कुछ साधना। अपने मूल संस्कारों को याद करें जब हम आत्मा परमधाम में थे तब हमारे संस्कार कितने डिवाइन, कितने प्युअर थे। उसको अपने सामने लाया करें। जब हम देवता थे तो हमारे संस्कार कितने सुन्दर थे। देवत्व से भरपूर थे हम, सम्पूर्ण पावन थे हम, कितने सुखदाई थे। कितने निर्मल थे, कितने नम्र थे। वो स्वरूप को सामने लाया करें। इन दो स्वरूपों को सामने लाने से हमारे मूल संस्कार इमर्ज होने लगेंगे। और ये जो अब के संस्कार हैं वो बदलने लगेंगे।
अपने संस्कार बदलने के लिए भी इन सबके साथ आपको चाहिए जो एक संस्कार आपको बदलना है, जो आपको कष्ट दे रहा है। ये बहुत अच्छी बात है कि आपको अपने गलत संस्कार का ज्ञान है। क्योंकि संसार में बहुत लोग ऐसे हैं जिन्हें अपने संस्कारों का पता नहीं। वो अपने को राइट समझ रहे हैं। लेकिन जो लोग अपने बुरे संस्कारों को पहचान गये। लक्ष्य बना लिया कि मुझे इन्हें चेंज करना है तो उनको एक शक्ति तो पहले ही आ जाती है। उन्हें उस संस्कार को ख्याल में रखते हुए रोज़ एक घंटा मेडिटेशन करना होगा तीन मास। और लक्ष्य बना लेना होगा कि इस संस्कार को मुझे बदल लेना है। तो योग की शक्ति से, और दो चीज़ जो मैंने पहले कही अपने अनादि और आदि संस्कारों की स्मृति से संस्कार तेजी से बदल जायेंगे। और रही बात दूसरों के संस्कार बदलने की उसमें हमें बहुत अच्छी सब्कॉन्शियस माइंड की विधि जो बताते आए हैं कि सवेरे पाँच बजे जब वो व्यक्ति सोया हो। उसे पाँच-दस मिनट गुड वायब्रेशन देंगे। और फिर उसे आत्मा देखकर बात करेंगे, यू आर अ गुड सॉल। तुम तो देवता थे। ये संस्कार तुम्हारा नहीं है। ये तो पराया है, तुमने इसको एडॉप्ट कर लिया है। तुम इसे छोड़ दो। उन्हें प्रेरित करेंगे कि तुम्हें अब मनुष्य से देवता बनना है। बहुत अच्छा मनुष्य बनना है। सबको सुख देना है। रोज़ सेम टाइम अगर इस तरह के वायब्रेशन उस व्यक्ति को देंगे लेकिन साथ रोज़ आधा घंटा योग का दान भी उनको करना पड़ेगा तो उसमें कोई संदेह नहीं कि दूसरों के संस्कार भी बदल जायेंगे।