मैं जब इस संसार में अवतरित होता हूँ तो अति साधारण रूप में आता हूँ, जिससे मूढमती मनुष्य मुझे पहचान नहीं पाते। कोटों में कोई और कोई में भी कोई विरला मेरे यथार्थ स्वरूप को जानकर और पहचानकर मेरी शरण को ग्रहण करते हैं।
शिवरात्रि के इस पावन पर्व के उपलक्ष्य में आज हम देखेंगे कि शिव मंदिर के अन्दर हमेशा शिवलिंग को गर्भ में दिखाया गया है और वह भी एक सीढ़ी नीचे उतरकर लोग उसकी पूजा करते हैं। बाकी सभी देवी-देवताओं के मन्दिर में जायेंगे तो हमेशा देवताओं को आसन पर बिठाया है। लेकिन क्या शिव के लिए कोई आसन नहीं मिला? भावार्थ ये है कि परमात्मा शिव जब इस संसार में अवतरित होते हैं, तो वो जो अपना कार्य करते हैं बहुत गुप्त और बहुत निरहंकारी होकर करते हैं। जिस तरह दुनिया के अन्दर किसी को भी आसन प्राप्त होता है तो धीरे-धीरे उसका अहंकार बढ़ता है, लेकिन परमात्मा के प्रति दिखाया है कि कितना निरहंकारी है। उसे आसन भी नहीं है, एकदम गर्भ में जैसे एक सीढ़ी नीचे उतरकर गृह गर्भ में उसकी प्रतिमा रखी जाती है, पूजा करने के लिए।
वो ऊंचे ते ऊंचा ज़रूर है, सर्वोच्च शक्ति है, लेकिन सबसे निर्मान और निरहंकारी भी है जो अपने लिए कोई आसन नहीं रखा। लेकिन इतना श्रेष्ठ कर्म कराया मनुष्य से जो उसको देव स्वरूप में बनाते हुए उसे श्रेष्ठ आसन दे दिया। तो ये परमात्मा की महानता है।
साथ ही कहा जाता है कि परमात्मा जब इस संसार में अवतरित होते हैं तो उन्हें कोई आधार तो चाहिए, तो हमेशा शिव मंदिर के अन्दर देखा जाता है कि बाहर नंदी रखा होता है; और बताया यही जाता है कि ये नंदी परमात्मा का दिव्य वाहन है। इसलिए नंदी के भृकुटी के अन्दर, भृकुटि के मध्य में शिवलिंग की आकृति दिखाते हैं। भावार्थ यही है कि जब परमात्मा शिव इस संसार में अवतरित होते हैं तो एक साधारण तन का आधार लेते हैं और उसकी भृकुटि में आकर बैठते हैं। लेकिन जो आधार लिया है वो भी एक मेल का आधार लिया है, इसलिए बैल दिखाते हैं। जिसके लिए श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने कहा सातवें अध्याय में कि हे अर्जुन, मैं जब इस संसार में अवतरित होता हूँ तो अति साधारण रूप में आता हूँ, जिससे मूढमती मनुष्य मुझे पहचान नहीं पाते। कोटों में कोई और कोई में भी कोई विरला मेरे यथार्थ स्वरूप को जानकर और पहचानकर मेरी शरण को ग्रहण करते हैं। अब यहाँ स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण को तो कौन नहीं पहचानता! परंतु श्रीकृष्ण का साधारण नर स्वरूप जब कलियुग में आ जाता है क्योंकि अनेक पुनर्जन्म लेते हुए जब श्रीकृष्ण भी नर स्वरूप में आ जाते हैं तब वो साधारण स्वरूप होने के कारण परमात्मा का दिव्य अवतरण उनकी भृकुटि में होता है। और उनकी भृकुटि में बैठकर गीता का सत्य ज्ञान मनुष्य आत्मा को देते हैं; और इस तरह से आत्माओं का शुद्धिकरण करते हैं।
साथ-साथ शिवलिंग में तीन लकीर लगाई जाती हैं, भावार्थ यही है कि जो आदि-मध्य-अन्त का ज्ञाता है, जिसके पास तीनों कालों का ज्ञान है, जो त्रिकालदर्शी है, तीनों कालों का दर्शन कराने वाले हैं तो परमात्मा जब इस संसार में अवतरित होते हैं- अधर्म का नाश सतधर्म की पुन: स्थापना करने के लिए, तो अधर्म का नाश करने का आधार है-ज्ञान। तभी कहा जाता है, क्रज्ञान सूर्य प्रगटा, अज्ञान अंधेर विनाशञ्ज। मनुष्य जीवन में जो पाप कर्म का कारण है या कारक है, अधर्म का कारक है वो है अज्ञानता। तो वो परमात्मा जिनके पास तीनों कालों का ज्ञान है वो इस संसार में अवतरित होकर, आत्मा को तीनों कालों का ज्ञान देकर उसकी अज्ञानता को नष्ट करते हैं। इस तरह अधर्म का नाश और सतधर्म की पुन: स्थापना करते हैं। आत्मा को अपनी वास्तविकता का परिचय कराते हैं।
अन्त के बाद फिर पुन: आदि होती है, इस रहस्य का भी उद्घाटन करते हैं। जिससे मनुष्य आत्मा जो पाप कर्म करके पतित बनी है, उस अज्ञानता का नष्ट करने से जब ज्ञान आता है तो मनुष्य आत्मा के कर्मों में भी परिवर्तन अर्थात् श्रेष्ठ कर्म करने लगते हैं। आत्म शुद्धिकरण उसका होता है ज्ञान से। जैसे ही आत्म शुद्धिकरण हुआ, श्रेष्ठ कर्म करने लगते हैं तो कहा जाता है पतित से पावन बनते हैं। यही पतित से पावन, परमात्मा के लिए कहा गया कि हे पतित पावन आओ आकर हमको पतित से पावन बनाओ। अधर्म से सत धर्म की ओर ले जाने का कार्य करते हैं। और इसके लिए परमात्मा ने त्रिमूर्ति को रचा, ब्रह्मा द्वारा नई सृष्टि का सृजन किया क्योंकि जब आत्मायें पावन बनती जाती हैं, श्रेष्ठ कर्म करने लगते हैं तो नैचुरल है अधर्म का नाश हुआ तो सत धर्म यानी सतयुग के दिव्य स्थापना का कार्य परमात्मा ब्रह्मा के माध्यम से करते हैं। इसलिए ब्रह्मा को सभी वेदों का ज्ञाता बताया।