ये आध्यात्मिक नियम है… संस्कार से संसार बनता

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संस्कारी आत्मा अर्थात् जो अपने संस्कारों के साथ जीते हैं। संस्कार तो हैं लेकिन अगर संस्कार के साथ जीते नहीं, उनका समय आने पर इस्तेमाल नहीं किया तो फिर उसको अपना संस्कार नहीं कहा जा सकता

आप अपने बच्चों के लिए क्या चाहते हैं? आपका बच्चा कैसा होना चाहिए? जाहिर है चाहेंगे कि बच्चे संस्कारी हों। संस्कारी में भी कौन-से होते हैं। कभी-कभी बीच-बीच में रूककर इसकी परिभाषा भी देख लेनी चाहिए। अच्छा बच्चा मतलब क्या, संस्कारी बच्चा मतलब क्या, नेक इंसान मतलब क्या? ये शब्द तो हम बार-बार बोलते हैं लेकिन उसकी परिभाषा क्या है, उसका अर्थ क्या है? हमने कभी बैठकर सोचा नहीं कि संस्कारी मतलब क्या? क्या संस्कारी बच्चे को गुस्सा आना चाहिए? संस्कारी बच्चा अर्थात् आत्मा, जिसका हर संस्कार ऐसा हो जो दूसरों को तो सुख देे लेकिन उसका संस्कार ऐसा हो कि वो आत्मा खुद सदा सुखी रहे। परिस्थिति आए परिस्थिति जाए, मुश्किलें आएं-मुश्किलें जाएं, लेकिन उसका संस्कार हिलना नहीं चाहिए। ये है संस्कारी।
कोई भी चीज़ अगर कभी-कभी होती है तो वो संस्कार नहीं होती है। संस्कार मतलब मेरा स्वभाव। जैसे अगर किसी के अन्दर शक करने का संस्कार है तो सबसे परफेक्ट व्यक्ति भी उसके सामने खड़ा होगा, तब भी वह थोड़ा शक करेगा ही। क्योंकि उसके अंदर शक करने का संस्कार है। किसी के अंदर शांत रहने का संस्कार है। तो किसी के अंदर बिना बात के चिंता करने का संस्कार है। किसी के अंदर बड़ी-बड़ी बातों को एक सेकंड में खत्म करने का संस्कार है। और किसी के अंदर छोटी-छोटी बातों को जीवनभर पकड़कर रखने का संस्कार है। और हम सब वो संस्कार लेकर यहाँ आए हैं। लेकिन हम कहते हैं कि हम बहुत संस्कारी बच्चे हैं।
लेकिन अब हमें अपने संस्कारों को थोड़ा और पॉलिश करने की ज़रूरत है। क्योंकि आजकल हम अपने मूल संस्कार भूल चुके हैं। जैसे- हम कहते हैं टेंशन तो होती ही है। मतलब हमने टेंशन को अपना संस्कार स्वीकार किया है। जबकि शांत मुझ आत्मा का संस्कार है। हमारा कौन-सा संस्कार है? शांति या अशांति। अगर शांति मेरा संस्कार है तो मुझे ये नहीं कहना चाहिए कि थोड़े दिन कहीं दूर चलते हैं, मुझे शांति चाहिए। एक मिनट शांति से बैठने दो मतलब सामने वाले से शांति मांग रहे हैं। जबकि शांति मेरा संस्कार है। तो संस्कारी आत्मा अर्थात् जो अपने संस्कारों के साथ जीते हैं। संस्कार तो हैं लेकिन अगर संस्कार के साथ जीते नहीं, उनका समय आने पर इस्तेमाल नहीं किया तो फिर उसको अपना संस्कार नहीं कहा जा सकता।
अभी एक सेकंड के लिए चेक करते हैं शांति मेरा संस्कार है तो कल का सारा दिन कैसा रहेगा। आजकल रविवार ज्य़ादा टेंशन वाला होता है या सोमवार ज्य़ादा टेंशन वाला। 4-5 साल पहले भी लोग कहते थे हम शनिवार और रविवार का इंतज़ार करते हैं। फिर अब कहने लगे कि रविवार, सोमवार दोनों ही दिन चिंता परेशानी है। और अब हम कह रहे हैं रविवार, सोमवार से भी ज्य़ादा मुश्किल है। सवाल खड़ा हो गया ना हमारे संस्कारों पर। जब कोविड आया और शुरू में लॉकडाउन लगा तो सबने सोचा हम घर बैठेंगे परिवार के साथ फिर हम कहने लगे कोविड क्यों आया। एक महीने के अंदर सबने कहा स्कूल कब खुलेंगे, ऑफिस कब खुलेगा, मुझे वापस जाना है कैसे हम इस घर में ऐसे बंद होकर बैठ सकते हैं।
लॉकडाउन का समय वो था, जब कुछ परिवारों ने अपने बिगड़े हुए रिश्ते बहुत सुंदर बना लिए और कुछ परिवारों ने अलग होने का निर्णय ले लिया। क्योंकि लॉकडाउन में हमें एक-दूसरे के संस्कार दिखाई देने लगे। एक-दूसरे को देखते थे तो कहते थे अच्छा आपमें ये वाली आदत भी है। क्योंकि रोज़ तो उतना मिलना नहीं होता था। संस्कार हमारी सबसे महत्त्वपूर्ण चीज़ है। क्योंकि संस्कार से हमारे मन की स्थिति बनती है। संस्कार से स्वास्थ्य बनता है। सबकुछ तो संस्कार से ही होता है।
आध्यात्मिक नियम है – संस्कार से संसार बनता है। मतलब मेरा संसार, मेरी दुनिया मेरे संस्कारों से बनती है। फिर सृष्टि भी उसी से ही बनती है।

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