असन्तुष्टता का कारण यह होता है जो कोई की वाणी व संस्कार व कर्म देखते हो वो अपने विवेक से यथार्थ नहीं लगता है, इसी कारण ऐसा बोल व कर्म हो जाता है जिससे दूसरी आत्मा असन्तुष्ट हो जाती है। कोई का भी कोई संस्कार व शब्द व कर्म देख आप समझते हो- यह यथार्थ नहीं है व नहीं होना चाहिए; फिर भी अगर उस समय समाने की व सहन करने की शक्तियां धारण करो तो आपकी सहन शक्ति व समाने की शक्ति ऑटोमेटिकली उसको अपने अयथार्थ चलन का साक्षात्कार करायेगी। लेकिन होता क्या है वाणी द्वारा व नैन-चैन द्वारा उसको महसूस कराने व साक्षात्कार कराने लिए आप लोग भी अपने संस्कारों के वश हो जाते हो। इस कारण न स्वयं सन्तुष्ट, न दूसरा सन्तुष्ट होता है। उसी समय अगर समाने की शक्ति हो तो उसके आधार से व सहन करने की शक्ति के आधार से उनके कर्म व संस्कार को थोड़े समय के लिए अवॉयड कर लो तो आपकी सहन शक्ति व समाने की शक्ति उस आत्मा के ऊपर सन्तुष्टता का बाण लगा सकती है। यह न होने कारण असन्तुष्टता होती है। तो सभी के सम्पर्क में सर्व को सन्तुष्ट करने व सन्तुष्ट रहने के लिए यह दो गुण व दो शक्तियां बहुत आवश्यक हैं। इससे ही आपके गुण गायन होंगे। भले उसी समय विजय नहीं दिखाई देगी, हार दिखाई देगी। लेकिन उसी समय की हार अनेक जन्मों के लिए आपके गले में हार डालेगी। इसलिए ऐसी हार को भी जीत मानना चाहिए। यह कमी होने कारण इस सब्जेक्ट में जितनी सफलता होनी चाहिए उतनी नहीं होती है। बुद्धि में नॉलेज होते हुए भी किस समय किस रूप से किसको नॉलेज व युक्ति से बात देनी है, वह भी समझ होनी चाहिए। समझते हैं- मैंने उनको शिक्षा दी। लेकिन समय नहीं है, उनकी समर्थी नहीं है तो वह शिक्षा, शिक्षा का काम नहीं करती है। जैसे धरती देखकर और समय देखकर बीज बोया जाता है तो सफलता भी निकलती है। समय न होगा व धरनी ठीक नहीं होगी तो फिर भले कितनी भी बड़ी क्वालिटी का बीज हो लेकिन फिर वह फल नहीं निकलेगा। इसी रीति ज्ञान के प्वाइंट्स व शिक्षा व युक्ति देनी है तो धरनी और समय को देखना है। धरती अर्थात् उस आत्मा की समर्थी को देखो और समय भी देखो तब शिक्षा रूपी बीज फल दे सकता है। समझा!