प्रश्न : मैं मुकेश वैरागी इटानगर से हूँ। कई धर्म और सम्प्रदाय ये मानते हैं कि मृत्यु ठीक वैसे ही है जैसे पानी से बुदबुदा निकला और पानी में ही समा गया। या सागर से ही निकला और सागर से ही नदियां बनीं और अन्तत: सागर में ही समा गईं। वैसे ही क्या मृत्यु के बाद हम ब्रह्म में लीन हो जाते हैं?
उत्तर : एक आम मान्यता तो ये है, लेकिन आजकल तो क्या है कोई इसके बारे में न सोचता, न जानता, न कोई सुनाई जाती, किसी महान संत ने शरीर छोड़ा तो लोग कहेंगे ब्रह्म में लीन हो गया। लेकिन ये बात जानने योग्य है और भारत की फिलॉसफी में इसकी चर्चा है कि आत्मा अविनाशी है, वो ऐसा नहीं है कि परमात्मा से बुदबुदा निकला था, वो उसका पार्ट है एक, भगवान के पार्ट होते नहीं वो तो अखण्ड ज्योति है। वो फिजि़कल नहीं है जो उसके पार्ट किए जा सकें। जैसे ये भी कहते हैं कि हम भगवान के अंश हैं, हम भगवान के अंश नहीं हैं। हर आत्मा का अपना एक अस्तित्व है। इसका अर्थ ये होता है कि परमात्मा की शक्तियों का अंश हमारे अन्दर है, उसकी प्युरिटी का अंश हमारे अन्दर है। वास्तव में आत्मा का अस्तित्व भी अलग और परमात्मा का अस्तित्व भी अलग है। तो वो न उससे निकली है, न उसका जन्म हुआ है। अन्यथा उसको जन्म लेने वाला माना जायेगा ना!
आत्मा तो अजर अमर अविनाशी है। अगर ये मान लिया जाये कि बुदबुदा पुन: सागर में विलीन हो जायेगा, बुदबुदा का अन्त हो गया माना आत्मा का भी अन्त हो गया। आत्मा का कभी अन्त नहीं होता है। आत्मा न परमात्मा में लीन होती है वो दोनों अलग-अलग हैं, इस शब्द पर हम ध्यान दें। आत्मा परमात्मा में लीन होती है। इसका अर्थ हो गया दो हैं। एक नहीं है। तभी तो दोनों लीन होंगे ना! वो दो हैं और दोनों ही अजर अमर अविनाशी हैं। दोनों का ही अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता। इसलिए ये बात भी वास्तव में दूसरे रूप की थी, जो इस रूप में प्रचलित हो गई और वो थी कि हम परमात्मा के लव में, प्यार में लीन रहें। ऐसे खो जायें उसके प्यार में मानो वो और हम एक हो गये। सत्य ये है, एक है परम आत्मा और दूसरा है ब्रह्म लोक। उस ब्रह्म लोक को लोगों ने ब्रह्म मान लिया, परमात्मा मान लिया। वो ब्रह्मलोक है, लोक माना स्थान। रहने का स्थान। परमात्मा के रहने के स्थान को ब्रह्मलोक या परलोक कहा जाता है। तो जब आत्मायें मुक्त हो जाती हैं, जिसके लिए लोग साधनायें करते हैं तो वो मुक्तिधाम भी इसे कहते हैं ब्रह्मलोक को। मुक्तिधाम में जाके आत्मायें निवास करती हैं। तो आत्मा वहाँ अपने मूल स्थान में जिसको परमधाम भी कहते हैं वहाँ जाके रहती हैं। तो उसको ऐसा ही लगता है जैसे वो अपने घर में गहन शांति में है, लीन हो गई है उसमें। क्योंकि उसके साथ वहाँ देह नहीं होता और जब देह नहीं है, ब्रेन नहीं है तो मन-बुद्धि एक्टिव नहीं रहती। वहाँ वो बिल्कुल निर्संकल्प हैं। वहाँ उसके चित्त में कोई संकल्प, कोई विचारधारा, कोई संस्कार नहीं हैं। उस स्थिति को कहा गया है कि ब्रह्म में लीन हो जाना।
तो ये जो हमारे साधक साधनायें कर रहे हैं। उनकी गति श्रेष्ठ होती है, नॉ डाउट। कोई भी व्यक्ति साधना करेगा उसके कुछ विकर्म भी नष्ट हो जाते हैं। लेकिन एक रहस्य इसमें ये भी जानने का है, जो स्वयं भगवान ने ही आकर बताया है। एक बार आत्मा जब ब्रह्मलोक से इस धरा पर आ गई तो वो तब तक यहाँ पुनर्जन्म लेती रहेगी जब तक स्वयं भगवान कल्प के अन्त में आत्माओं को वापिस ले जाने के लिए न आयें। जो बहुत अच्छे साधक हैं देखिए मुक्ति में कोई नहीं जायेगा क्योंकि मुक्ति के द्वार बन्द हो जाते हैं। वहाँ आना और जाना साथ-साथ नहीं चलता। एक बार सबको आना है धीरे-धीरे और अन्त में एक बार सबको जाना है। वन वे रहता है ये। इसीलिए भगवान को ही मुक्ति दाता कहा जाता है।
प्रश्न : चार साल पहले मेरी शादी हुई और एक साल के बाद ही हमें एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। मैं और मेरी पत्नी दोनों का सम्बन्ध शुरू से ही अच्छा नहीं रहा है और मेरी माता जी भी उन्हें पसंद नहीं करती। उन दोनों के बीच भी हमेशा एक तना-तनी का माहौल रहा करता था और बीच में मैं पिस जाता था। फिर चार साल के बाद मेरी पत्नी घर छोडक़र अपने मायके चली गयी, मेरा बच्चा भी उसके साथ है। मैं अपनी पत्नी से अलगाव नहीं चाहता हूँ और ना ही अपनी माँ के सामने प्रतीत करना चाहता हूँ कि मैं अपनी पत्नी के साथ हूँ और उनका ध्यान नहीं दे रहा हूँ। पूरे घर में तनाव का माहौल है और साथ ही जो छोटा बच्चा है वो भी इसमे सफर कर रहा है। मैं इस सिचुएशन से कैसे बाहर आऊं ताकि माँ भी सन्तुष्ट हो, पत्नी भी सन्तुष्ट हो और हम सब खुशी से एक साथ रह सकें?
उत्तर : इन सब झगड़ों में बीच में पिस रहा वो बच्चा जिसकी मानसिक स्थिति बचपन से ही निगेटिविटी का शिकार हो रही है। आजकल लोग इस बात को कम समझते हैं। सबसे पहली चीज़ मैं कहूँगा कि समझदार होना चाहिए माँ को। जो अपनी बहू को अपनी बेटी के समान ट्रीट करे। उसको कुछ सिखाए। वो गलती भी कर सकती है। हो सकता है उसमें इगो रहा हो जो अपनी सास को सम्मान न देती हो। बुरा व्यवहार करती हो लेकिन आखिर घर चलाना है, घर बसाना है, सबको आगे बढ़ाना है। आखिर अपना ही जीवन तो नहीं है ना, समाज में भी तो होता है इसके बाद। गलत संदेश जाता है, बदनामी होती है। बोलने वाले न जाने क्या-क्या बोलते हैं। तो इसलिए मनुष्य को बहुत समझदारी से सम्बन्धों को निर्वाह करना चाहिए। देखिए मैं एक बात कहूँगा, ये हर व्यक्ति के लिए है कि हर व्यक्ति के मन में दूसरों से एक्सपेक्टेशन्स बहुत होती हैं। लेकिन हमें ये जानना चाहिए कि हम एक्सपेक्ट तो करते हैं, ये भी सोच लेना चाहिए कि क्या दूसरा व्यक्ति हर समय हमारी एक्सपेक्टेशन्स को पूर्ण करने की स्थिति में है! अपने से बात करें कि क्या हम वैसा रेस्पॉन्स कर सकते हैं जैसा दूसरे चाहते हैं! कदापि नहीं हो सकता। हरेक व्यक्ति का अपना जीवन है, हरेक की अपनी थिंकिंग है, अपनी उसकी भावनाये हैं, कार्य करने की शक्ति है, बौद्धिक शक्ति है, और वो बहन उस घर में आई है न जाने उसका कैसा बैकग्राउंड रहा है। उनको उनके माँ-बाप से प्यार मिला है या नहीं, मेंटली वो कितनी स्ट्रॉन्ग रही है, वो भी कामना करती होगी ना कि मेरी सास मुझे ऐसा प्यार करेगी और मैं कुछ गलती करूंगी तो मुझे प्यार से सीखा देगी। लेकिन अगर सास डांटे तो उसका भी तो इगो हर्ट होगा और वो भी सामना करेगी। इसलिए मैंने कहा पहले समझदार होना चाहिए माता जी को।
सोचना चाहिए कि अब वो हमारे घर में शामिल हुई है, हम उसे अपने घर में शामिल कर लें। हम उसे स्वीकार कर लें। उसमें कुछ अवगुण हैं, कुछ गुण हैं, कुछ विशेषताएं हैं, सबको शामिल करें अपने परिवार में। आपको राजयोग मेडिटेशन भी सीख लेना चाहिए। अपने घर में आप एक घंटा अच्छा मेडिटेशन करें। क्योंकि अगर डिप्रेशन में आ गये तो तो सारा खेल ही बिगड़ जायेगा। क्योंकि डिप्रेशन तो जीवन ही समाप्त कर देता है। एक रास्ता आपको निकालना है। प्रायोरिटी(प्राथमिकता) किसको देनी है? अगर आपने राजयोग नहीं सीखा है तो आप पहले राजयोग सीखें। आपके पास सत्य ज्ञान हो। आप रियलाइज़ करें कि आपकी गलती कहाँ हो रही है। हर मनुष्य अगर सम्बन्धों में इस तरह से विचार करे और अपने को चेंज करने को तैयार रहें तो जीवन एक सुन्दर खेल बन जायेगा।