स्वार्थ शब्द का सही मायने में अर्थ…

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लोग प्राय: यह शिकायत करते हुए सुने जाते हैं कि आजकल सभी स्वार्थी हैं। वे स्वार्थ को बुरा समझते हैं। इस कारण साधु, सन्यासी लोग भी उपदेश करते रहते हैं कि स्वार्थ का त्याग करना चाहिए; स्वार्थ दु:ख देने वाला है। उनकी शिक्षा यही होती है कि ‘नि:स्वार्थ बनो’। परन्तु विवेक कहता है कि स्वार्थ और स्वार्थ सिद्धि करने की वास्तविक युक्ति को जान कर मनुष्य को स्वार्थी बनना चाहिए। यह बात बड़ी आश्चर्यजनक मालूम होगी परन्तु है यह पूर्णतया सत्य ही।
स्वार्थ क्या है?
प्रश्न यह है कि स्वार्थ है क्या? आप यदि विचार करें तो यह मालूम पड़ेगा कि मनुष्य के सभी कर्म जिन्हें ‘स्वार्थ पूर्णञ्ज कहा जाता है, सुख और शान्ति की प्राप्ति के अभिप्राय से किये गये होते हैं। आप मनुष्य का कोई भी कृत्य ऐसा न पायेंगे जो उसने जान-बूझ कर दु:ख और अशान्ति भोगने के विचार से किया हो। तब नि:स्वार्थ बनने के उपदेश का तो यही अर्थ हुआ कि मनुष्य सुख और शान्ति की इच्छा न करे। परन्तु यह तो असम्भव है। स्वयं सन्यासी तथा महात्मा लोग भी शान्ति ही की प्राप्ति के लिये पुरूषार्थ करते हैं। इसलिये सत्यता तो यह है कि मनुष्य को अधिक से अधिक ‘स्वार्थी’ बनना चाहिए। परन्तु सबसे अधिक सुख और शान्ति तो देवी-देवताओं को प्राप्त होती है। अत: हमारे कहने का अभिप्राय: यह है कि मनुष्य को जीवनमुक्त देवपद प्राप्त करने का स्वार्थ सिद्ध करने का प्रयत्न करना चाहिए।
स्वार्थ स्वाभाविक है
आत्मा का वास्तविक स्वरुप तो है ही ‘शान्त’। तब शान्त स्वरुप आत्मा भला क्रशान्तिञ्ज स्वधर्म में स्थित न होना चाहे यह कैसे हो सकता है? शान्ति तो आत्मा का स्वभाव है। अतएव अशान्ति उत्पन्न होने पर शान्ति की इच्छा होना भी स्वाभाविक है। इसलिये यह कहना कि मनुष्य नि:स्वार्थ अथवा निष्काम कर्म करे, निरर्थक है क्योंकि नि:स्वार्थ अथवा निष्काम यानी सुख-शान्ति की इच्छा के बिना तो कोई भी कर्म नहीं किया जाता। ‘स्व’ आत्मा को कहते हैं और ‘अर्थ’ उद्देश्य को। बिना उद्देश्य के, आत्मा कोई कर्म करने का विचार ही भला कैसे कर सकती है!

स्वार्थ सिद्धि की युक्ति
परन्तु सम्पूर्ण सुख-शान्ति अथवा देवपद की प्राप्ति का तरीका अथवा उपाय लोग नहीं जानते— यह बात स्वीकार करने योग्य है। स्वार्थ की युक्ति अथवा विधि न जानने के कारण ही मनुष्य का स्वार्थ सफल नहीं हो पा रहा। अब देखना यह है कि देवता सुखी और शान्त थे क्योंकि वे पवित्र थे। पवित्रता के कारण ही तो उनको देवता अर्थात् दिव्य कहा जाता है। इसलिए याद रहे कि पवित्रता के बिना तो सुख और शान्ति कहीं टिक ही नहीं सकते। इनको धारण करने वाली तो पवित्रता अर्थात् निर्विकारिता ही होती है। परन्तु धारण करने वाले ही को ‘धर्मात्मा’ कहा जाता है। इस कारण पवित्रता ही मनुष्य का धर्म है, जिससे मनुष्य जीवनमुक्त बन सकता है। पवित्रता से ही स्वार्थ(देवपद) सिद्ध हो सकता है। परन्तु यद्यपि आजकल मनुष्य स्वार्थी हैं तो भी वे न तो अपने स्वार्थ को पूर्ण रीति से जानते हैं और न ही निर्विकारी हैं। तभी कहा जाता है कि धर्म(स्वार्थ सिद्ध करने की युक्ति यानी पवित्रता) का और कर्म का तथा जीवन के लक्ष्य (स्वार्थ यानी देवपद) का ज्ञान प्राप्त करो क्योंकि बिना ज्ञान के मनुष्य मूर्ख होता है और मनुष्य अपना स्वार्थ (देवपद) सिद्ध करना नहीं जानता अथवा नहीं कर सकता।
स्वार्थ का ज्ञान
मनुष्य धन तो चाहता ही है क्योंकि धन से भी मनुष्य के अनेक काम संवरते हैं और वैभव भी प्राप्त होते हैं। ‘धन’ को ‘अर्थ’ भी कहा जाता है। परन्तु ‘स्व’ अर्थ’ शब्द ही से स्पष्ट है कि पहले ‘स्व’ में टिकने से फिर अर्थ भी प्राप्त हो सकेगा अन्यथा ‘स्व’ के बिना यदि अर्थ प्राप्त हुआ भी तो वह स्व को सुख देने वाला न होकर दु:ख देने वाला ही होगा। क्योंकि जब तक मनुष्य मनजीत(स्वजीत) अर्थात् देवता न बने तब तक वह श्रीमान अथवा श्रीयुत अर्थात् धन का मालिक भी नहीं हो सकता, बल्कि धन ही उसका मालिक बन बैठता है, कारण कि वह मनुष्य धन कमाने, लगाने, जोडऩे, संभालने, भोगने इत्यादि की चिन्ता में लगा रहता है।

योग से स्वार्थ सिद्ध
अब स्व में स्थित होना ही योग कहलाता है और योग का अर्थ है प्राप्ति (सुख-शान्ति की) अत: प्राप्ति के लिये यानी स्वार्थ-सिद्धि के लिये मनुष्य को योगाभ्यास करना चाहिए। योग ही सच्ची कमाई है जो जन्म-जन्मान्तर मनुष्यात्मा के साथ चलती है। अन्यथा योग के बिना तो सिकन्दर जैसे बादशाह भी यहाँ से खाली हाथ चले गये। अब प्राप्ति होती है सदा भण्डार से, सागर से, रत्नागर से अथवा सौदागर से। इसलिये स्वार्थ सिद्धि अथवा क्रयोगञ्ज परमपिता परमात्मा ही से हो सकती है क्योंकि वही शान्तिसागर, आनन्दसागर, सुख का भण्डार, ज्ञान-रत्नागर है और पुराना तन-मन-धन लेकर जन्म-जन्मान्तर के लिये देवताई तन-मन और धन अर्थात् जीवनमुक्ति देने वाला सच्चा सौदागर है। परन्तु यदि किसी को सौदागर का ज्ञान ही नहीं होगा अथवा सौदागर से उसका मेल ही नहीं होगा तो उसको प्राप्ति कैसे होगी? अतएव अब जबकि परमपिता परमात्मा जो कि सच्चा सौदागर है, स्वयं अवतरित हो ब्रह्मा के व्यक्त रुप द्वारा ज्ञान-रत्न देकर ”सच्चा सौदा” करता है तो मनुष्य को चाहिये कि इस एक ही जन्म में, स्वधर्म अर्थात् पवित्रता में स्थित होकर, जन्म-जन्मान्तर के लिये स्वार्थ सिद्ध कर ले अर्थात् जीवनमुक्त देवपद, सुख शान्ति प्राप्त कर ले।

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