”मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना” आज परमात्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में हर किसी की अलग-अलग मान्यतायें दिखाई देती हैं। कोई कहता आत्मा सो परमात्मा तो कोई कहता परमात्मा नाम रूप से न्यारा है, कोई कहता परमात्मा यत्र-तत्र सर्वत्र है, और कोई कहता कि परमात्मा नाम की कोई चीज़ ही नहीं है। तो आखिर परमात्मा का स्वरूप क्या है वे स्वयं ही आकर बतायें तभी सत्य स्वरूप को जान सकें…आइए आज हम परमात्मा के सत्य स्वरूप को जानें और उससे मन इच्छित प्राप्ति करें।
हम सब अपने जीवन में सुख, शांति, समृद्धि, संतोष आदि-आदि इन चीज़ों का अनुभव और प्राप्ति चाहते हैं। स्वाभाविक है जिससे प्राप्ति चाहते हैं उनका परिचय होना अति आवश्यक है। यदि परिचय न हो तो सम्बन्ध जुट नहीं सकता, सम्बन्ध नहीं है तो स्नेह हो नहीं सकता। न सम्पर्क हो सकता है और न ही प्राप्ति हो सकती है।
हम सब स्वीकार करते हैं कि पिता परमात्मा सर्वज्ञ है और हम आत्मायें अल्पज्ञ हैं। अल्पज्ञ सर्वज्ञ को सर्वथा तब तक नहीं जान सकता जब तक सर्वज्ञ अपना परिचय स्वयं न दे। अत: परमपिता परमात्मा को हम आत्मायें इन दो युगों द्वापरयुग-कलियुग से अपनी-अपनी रीति से ढूंढने का प्रयास करते आये। जैसा-जैसा हमारा अनुभव रहा, हमने वैसा वर्णन किया। परन्तु परमात्मा कहते हैं- मैं जो हूँ, जैसा हूँ, मैं कौन हूँ और कैसा हूँ वो मैं जब स्वयं आता हूँ तब सारा भेद बताता हूँ। परमात्मा एक है हम सब मानते हैं। कदापि परमात्मा को बहुवचन के उपयोग में नहीं लाया जाता। तदापि देव-आत्मायें, पुण्य-आत्मायें, धर्म-आत्मायें, पाप-आत्मायें कहते हैं। यूं हम कदापि नहीं कहते कि परमात्मायें…!
परमात्मा एक है। वो सबसे न्यारा होने के कारण एक है, परम है, सर्वोच्च है, सर्वोपरि है, सर्वमान्य है। सर्व धर्म पिताओं के पिता हैं। सर्व देवों के देव हैं। हम सर्व आत्माओं के पिता के चित्र में दर्शाया हुआ देख सकते हैं।
अत: परमात्मा पिता के विषय में कुछेक बातें जो हमने जानी हैं। कोई कहते हैं मैं ही परमात्मा हूँ, कोई कहते परमात्मा है ही नहीं, कोई कहते परमात्मा नाम-रूप से न्यारा है। कोई कहते प्रकृति ही परमात्मा है। लेकिन परमात्मा कहते हैं मैं नाम-रूप से न्यारा नहीं हूँ। आपका नाम संज्ञावाचक है। मेरा नाम गुणवाचक, कत्र्तव्य वाचक, परिचयात्मक है। अगर किसी का नाम है मृदुला और हो सकता है वह कटुता की देवी हो। किसी का नाम हो त्रिलोकीनाथ, हो सकता है एक झुग्गी-झोपड़ी भी न हो। हमारा नाम कत्र्तव्य से सम्बन्ध नहीं रखता।
एक व्यक्ति था, उनका नाम छज्जू था। लोग कहते कि तुमने ये क्या नाम पाया है? बहुत समय के बाद उसने फैसला किया मैं नाम चेंज कर ही देता हूँ। बाहर निकला एक महिला ओखली में कुछ कूट रही थी। तो उससे पूछा कि आपका नाम? तो उसने कहा कि मेरा नाम लक्ष्मी है। आगे बढ़ा तो एक व्यक्ति कटोरा लेकर भीख मांग रहा था। उसका नाम पूछा तो कहा धनपत। थोड़ा और आगे बढ़ा तो कोई शव यात्रा जा रही थी। उसने पूछा ये किसकी शव यात्रा है- तो कहा कि अमरनाथ की शव यात्रा जा रही है। वो वापिस लौट आया।
लोगों ने सोचा कि अच्छा नाम लेकर आया होगा। पूछा क्या छज्जू, क्या नाम पाया? छज्जू ने कहा सुनो – क्रक्रलक्ष्मी कूटे ओखली, धनपत मांगे भीख, अमरनाथ चल बसे, छज्जू नाम ही ठीक।ञ्जञ्ज यानी परमात्मा वो हम आत्माओं का पिता है परमपिता। वो कहते हैं- ओ मेरे मीठे बच्चे- मेरा नाम न्यारा है। सच्चाई की बात ये है कि जिसके सबसे अधिक नाम और हर नाम गुणवाचक, कत्र्तव्य का बोध कराने वाला है उनको ही हमने गुमनाम कर दिया। और जिसका सबसे ज्य़ादा मोहिनी रूप उसको ही हमने कह दिया कि उनका कोई रूप ही नहीं!
ऐसा हो नहीं सकता कि कोई चीज़ है और उसका नाम न हो। जिस चीज़ का अस्तित्व होता है उसका नाम भी होता है तो उनका रूप भी होता है। तो परमात्मा का स्व-उद्घोषित नाम है सदा शिव, और शिव शब्द के अनेकानेक अर्थ हैं। एक अर्थ है कल्याणकारी, दूसरा, शिव का अर्थ है विष्णु और तीसरा शिव का अर्थ है बीजरूप, कल्याणकारी। मोहन जोदड़ो की संस्कृतियां हुई, ये फेक्ट है कि जब अन्य अध्ययन किया गया तो पाया गया जब वो 5द्गह्म्श कहते थे तो शिव कहते थे। शिव अर्थात् बिन्दु। परमात्मा पिता कहते हैं मेरा आप मनुष्य आत्माओं जैसा शारीरिक रूप नहीं है। परमात्मा बिन्दी ही है। वे अव्यक्त हैं, उनके नाक, हाथ, कान और पैर वाली प्रतिमा नहीं है। जिनकी यादगार में आज बारह ज्योर्तिमय और हमारे देवताओं ने भी समय प्रति समय जिसे याद किया है वो है शिवलिंग। न वो स्त्रीलिंग है, न वो पुलिंग है, लिंग का अर्थ है लक्षण। जिनका कल्याणकारी लक्षण है वो शिवलिंग है। अब परमात्मा ज्योर्तिलिंग की आराधना करनी हो तो दीप शिखा के रूप में प्रतिमा बनाई जाती है। और हम अपनी आराधना से व्यक्त करते हैं।
बिन्दु infinite point of light जिसकी न लम्बाई है, न चौड़ाई है, न ऊंचाई है। परंतु हम जानते हैं कि उनकी अपनी लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई है। इसी प्रकार परमात्मा निराकार इस भाव से है कि उनका कोई शारीरिक रूप, सूक्ष्म रूप नहीं, परंतु अति सूक्ष्म से सूक्ष्म ज्योर्तिमय बिन्दु रूप है।
तीसरी बात है कि उनका धाम निर्वाणधाम है। परमात्मा सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिवान है परंतु ये बात हम आप सबके सामने रख रहे हैं। इस पर विचार कीजिएगा। ये थोड़ी हट करके बात हो सकती है लेकिन विचार करना हम सबके हाथ में है और विचार करें कि वो सच में गुणों के सागर, जिसके कत्र्तव्य इतने श्रेष्ठ, क्या वो सर्वव्यापी हो सकता है! कण-कण में व्यापक है? जो चीज़ सर्वव्यापी है उनका तो कण-कण हो ही नहीं सकता।
परमात्मा पिता की आज्ञा है- मैं सर्वज्ञ हूँ, सर्वशक्तिवान हूँ, परन्तु सर्वव्यापी नहीं। सर्वव्यापी का ज्ञान कहाँ से आया? द्वापर युग से जब हमारे पुण्य कर्म क्षीण हो जाते हैं, पवित्रता खो देते हैं, तब परमात्मा को ढूंढना शुरू करते हैं। हमारे संतजन, ऋषि-मुनि ये कहते अगर गलत काम करोगे तो परमात्मा तुम्हें देख रहा है। इन कारणों से सर्वव्यापी की बात आई। दूसरा है भय- तुम्हें परमात्मा का डर होना चाहिए कि वो तुम्हें देख रहा है।
क्रक्रजाकी रही भावना जैसी प्रभू मूरत देखी तिन तैसीञ्जञ्ज जिसकी जैसी भावना होती है उसे वैसी ही सूरत-मूरत दिखाई देती है। मीरा को श्रीकृष्ण हर चीज़ में दिखाई देता था। तो पमात्मा ने भी उनकी भावना के आधार पर उसी रूप में साक्षात्कार कराया। इसलिए हमने कहा उसे सर्वव्यापी। तीसरी बात- स्नेह जिसके साथ स्नेह होता है तो उसे वो व्यक्ति हर जगह नज़र आता है। परमात्मा के साथ हमारा जिगरी स्नेह है, आत्मिक स्नेह है, मैं जिधर देखता हूँ वहाँ तू ही तू है।
परंतु थोड़ा-सा दिल पर हाथ रख के देखो। जो गुणी होता है वहाँ गुण अवश्य होता है। अगर अगरबत्ती यहाँ जगाई जाये और खुशबू बाहर आये ऐसा होगा नहीं। खुशबू भी वहाँ ही आयेगी। ऐसा नहीं होता है यहाँ अगरबत्ती जग रही हो तो खुशबू भी वहाँ जायेगी।
इसी रीति परमात्मा कहते हैं मैं इस जगत में व्यापक नहीं, न ही जगत मुझमें व्यापक है। मैं इस स्थूल लोक के पार, सूक्ष्म लोक से परे, मुझे कहा गया त्रिभुवनेश्वर, त्रिलोकीनाथ, वो तीन लोकनाथ, वो साकार लोक, सूक्ष्म लोक जहाँ त्रिदेव देवता रहते हैं। वहाँ भी व्यापक नहीं, मेरा तो परमधाम निवास है। सूर्य, चंद्र, तारागण के पार जहाँ सूर्य का प्रकाश नहीं पहुंचता। जहाँ स्व-आलोकित लोक है। जहाँ आत्माओं का निवास-स्थान है। परमात्मा पिता जिसका परमधाम ही निवास हो गया। अखंड ज्योति कहा गया, परलोक कहा गया। और परमात्मा पिता, परमात्मा उस लोक से अवतरित होते हैं। जो चीज़ व्यापक होती है वो अवतरित नहीं होती। इसलिए अधिक न कहकर परमपिता का स्व उद्घोषित नाम शिव, उनका रूप अति महीन ज्योर्तिमय और वे परमधाम निवासी हैं। जब हमें उसका परिचय प्राप्त होता है तब हम आत्मायें अपना मन उन पर एकाग्र कर सकते हैं। हम मनमनाभव होकर उससे प्राप्तियां कर आत्मा के अंदर भर सकते हैं। अब आप इनपर शांति से बैठकर विचार करिएगा कि परमात्मा का सत्य स्वरूप क्या हो सकता है।
राजयोगिनी ब्र.कु. आशा दीदी,डायरेक्टर ओ.आर.सी. रिट्रीट सेंटर,गुरूग्राम