जब आत्मा इस सृष्टि रंगमच पर आई तो परम पवित्र और सतोप्रधान थी। धीरे-धीरे उसमें गिरावट शुरू हुई और अपवित्र बनती गई। आज मनुष्य आत्मा तमोप्रधान और पतित बन चुकी है। हम आत्माओं को फिर से पावन बनाने और राजयोग की शिक्षा देने स्वयं परमपिता परमात्मा इस धरा पर अवतरित होते हैं। परमपिता परमात्मा अवतरित होते हैं न कि जन्म लेते हैं इसीलिए उसको परम-पिता कहते हैं। परमात्मा प्रजापिता ब्रह्मा के तन का आधार लेकर सच्चा ज्ञान सुनाते हैं और आत्मा का परमात्मा से मंगल मिलन की राह बताते हैं। यही मंगल मिलन राजयोग है। यह मिलन सर्व श्रेष्ठ होने के कारण इसे राजयोग कहा जाता है। यही योग सभी योगों का राजा है। स्वयं परमपिता परमात्मा शिव अपना सत्य परिचय देकर आत्मा को अपने साथ योग लगाने की विधि बताते हैं। इसका शिक्षक सर्वश्रेष्ठ स्वयं योगेश्वर परमात्मा है। इस योग के अभ्यास से हमारे संस्कार उच्च बनते हैं। एकाग्रचित्त होकर राजयोग का अभ्यास करने से मनुष्य आत्मा द्वारा किए गए जन्म-जन्मान्तर के पाप दग्ध हो जाते हैं। यह योग कर्मेन्द्रियों सहित मन का भी राजा बना देता है। इसीलिए इस योग को राजा बनाने वाला योग भी कहा जाता है।
राजयोग सिखाता है कर्मयोग
प्राचीन समय से लोगों के मन में ये धारणा बनी हुई है कि योग सीखने के लिए घर-गृहस्थ का त्याग करना पड़ेगा, जि़म्मेदारियों को छोडऩा होगा, गेरुए वस्त्र धारण कर जंगल में जाना होगा तब वे योगी कहला सकते हैं। लेकिन ऐसी बात नहीं है, राजयोग ही हमें सही कर्म सिखाता है। एक राजयोगी ही सच्चा कर्मयोगी बन सकता है। कर्मयोगी अर्थात् कर्म + योगी। पिता परमात्मा की याद में कर्म करना ही वास्तविक कर्म योग है। राजयोग हमें श्रेष्ठ कर्म करने की शिक्षा देता है। वह अपनी जि़म्मेदारियों को सम्भालते हुए घर-गृहस्थ में रहकर जीवन को कमल के फूल समान बनाता है। राजयोगी प्रतिकूल वातावरण में रहते हुए भी अपने आपको उससे न्यारा रखकर हर कर्म को परमात्मा की याद में श्रेष्ठ बनाता है।