मुख पृष्ठअंतर्राष्ट्रीय योग दिवसआठवें अध्याय का दसवां श्लोक

आठवें अध्याय का दसवां श्लोक

नश्छल मन से याद करने वाला परमात्मा को प्राप्त होता है। गीता के आठवें अध्याय के नौवें व दसवें श्लोक में भी परमात्मा के बारे में बताया गया है :
कविं पुराणमनुशासितार मनोरणीयांश मनुस्मरेद्य।
सर्वस्व धातारमयिन्त्यरूप मादित्यवर्ण तमस: परस्तात।।
प्रायाणकाले मनसांचलेन भक्तयायुक्तों योगबलेन चैव।
भुर्वोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक, सतं परं पुरुषमुपैति दिव्यम।।

अर्थात् जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियंता, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म, सबका भरण-पोषण करने वाले, अचिन्तय स्वरूप सूर्य के सदृश्य नित्य चेतन प्रकाश स्वरूप, अविद्या से अति परे, शुद्ध सच्चिदानंद परमात्मा को स्मरण करता है, व भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में भी योग बल से भृकुटि के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापन करके फिर निश्छल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य स्वरूप परम पुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है। वहीं नौवें अध्याय के आरंभ में ही कहा गया है भगवान द्वारा सिखाया गया योग राजयोग है। जिसे कलियुग के अंत में सुख पूर्वक अनायास किया जा सकता है। इसका वर्णन गीता के अध्याय 6 के श्लोक 46, 47, अध्याय 18 के श्लोक 54, 58 में किया गया है। अत: आत्मा के समान परमात्मा भी अति सूक्ष्म, अदृश्य, ज्योर्तिबिन्दु तथा अविनाशी है। परमात्मा शरीर के पिता नहीं कहे जाते बल्कि सर्व आत्माओं के पिता कहे जाते। परमात्मा और आत्मा का स्वरूप एक ही है।

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