दिव्य दर्शनीय मूर्त बनने के तीन पुरूषार्थ

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जिस तरह ब्रह्मा बाबा का दिव्य दर्शन होता था कि बाबा के स्वरूप के चारों ओर से लाइट-लाइट जैसे रेडिएट कर रहा है, लाइट जैसे फैला रहा है। तो उसके लिए अभ्यास चाहिए, जितना हो सके हम अव्यक्त स्वरूप में अपने आपको स्थित करें।

दूसरा, दिव्य दर्शनीय मूर्त बनने के लिए विशेष जो बाबा हम बच्चों को कहते हैं कि बाबा चाहता है कि हर बच्चे अपना अव्यक्त स्वरूप प्रत्यक्ष करें। जिस तरह से ब्रह्मा बाबा के लिए संदेशी ने बताया कि सम्पूर्ण बाबा को वतन में देखा कि बाबा ऊपर भी आपके जैसा ही बाबा हमने देखा। लेकिन बहुत लाइट-लाइट वाला था। तो बाबा ने कहा कि आप पूछ कर आओ कि वो कौन है? क्योंकि बाबा को भी ये रहस्य तब तक स्पष्ट नहीं था। तो जब संदेशी ने पूछा तो बताया कि वो मेरा पुरूषार्थी स्वरूप और मैं उसी का सम्पूर्ण स्वरूप हूँ। तब प्रत्यक्ष हुआ कि हरेक ब्राह्मण आत्मा का ये पुरूषार्थी स्वरूप है। लेकिन हम सबका भी सम्पूर्ण अव्यक्त लाइट का स्वरूप वतन में है। और इस पुरूषार्थी स्वरूप को उस स्वरूप में मर्ज होना है।
जितना-जितना हम अपने अन्दर में पुरूषार्थ करते हुए अव्यक्त स्वरूप में जैसे बाबा कहते हैं कि फरिश्ता स्वरूप अनुभव करो, तो फरिश्ता स्वरूप है ही लाइट स्वरूप। तो जब उसी स्वरूप में आप हर कर्म करेंगे कि मैं अव्यक्त स्वरूप हूँ तो चारों ओर लाइट ही लाइट महसूस होगी। हम भले ही साधारण कर्म कर रहे होंगे लेकिन स्थिति ऐसी होने के कारण सामने वाली आत्मा को वो लाइट का स्वरूप दर्शन होगा। वो दिव्य दर्शन, जिस तरह ब्रह्मा बाबा का दिव्य दर्शन होता था कि बाबा के स्वरूप के चारों ओर से लाइट-लाइट जैसे रेडिएट कर रहा है, लाइट जैसे फैला रहा है। तो उसके लिए अभ्यास चाहिए, जितना हो सके हम अव्यक्त स्वरूप में अपने आपको स्थित करें।
जितना साकार समय में या साकार दुनिया में अपने उस अव्यक्त स्वरूप को इमर्ज करते जायेंगे उतना अनेक आत्माओं को वो साक्षात्कार स्वत: होने लगेगा। ये दिव्य दर्शनीयमूर्त हैं। तो ये है दूसरा पुरुषार्थ।
तीसरा जैसे बाबा हमेशा हम बच्चों को कहते हैं कि अव्यक्त मुरलियों के बाद, हर संडे की अव्यक्त मुरलियों के बाद बाबा ड्रिल कराते हैं। अब एक सेकण्ड में अशरीरी हो जाओ। क्यों बाबा ये ड्रिल कराते हैं, क्योंकि अन्तिम घड़ी का जो पेपर है वो तो एक सेकण्ड का ही होता है। तो ये अभ्यास भी हो जाता है। दूसरा ये एक सेकण्ड में अशरीरीपन का अनुभव करने के लिए क्यों कहते हैं, अशरीरी होना माना बीज रूप होना। तो बीज स्वरूप में हम जब स्थित होंगे तो उस बीज का कनेक्शन सारे वृक्ष के साथ है। एक-एक पत्ते के साथ है। बाबा जो कहते हैं कि ये कल्प वृक्ष का पत्ता-पत्ता सूखने लगा है मुरझा रहा है क्योंकि उन्हें वो ताकत नहीं मिल रही है।
तो अब हम जितना अशरीरीपन का अभ्यास करते हुए अपने उस बीज स्वरूप में स्थित होंगे तो उस बीज के माध्यम से हम जैसे सारे वृक्ष के एक-एक पत्ते को सकाश देंगे, शक्ति देंगे, ताकत देंगे और वो आत्मायें सूखी हुई हैं, मुरझाई हुई हैं तो वो आत्मायें तरोताज़ा होने लगेंगी। तभी तो वो आपको अपना इष्ट समझेंगे, मानेंगे। इसलिए इस बीज स्वरूप द्वारा उस बीज रूप बाप की प्रत्यक्षता भी करनी है। और बीज स्वरूप में स्थित होकर एक-एक पत्तों के साथ कनेक्ट अपने आपको करना है और उनको अनुभव कराना है। तो ये तीसरा पुरूषार्थ है दिव्य दर्शनीय मूर्त बनने का।
पहला पुरूषार्थ देखा श्रृंगारी हुई मूर्त रहें, दूसरा पुरूषार्थ देखा कि अपने अव्यक्त स्वरूप को इमर्ज करना है, ज्य़ादा से ज्य़ादा उसको इमर्ज करते जाना है, और तीसरा बीज रूप या अशरीरीपन के अभ्यास द्वारा उस बीज स्वरूप में आकर हरेक पत्ते को सकाश देते जाना है।

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