अपने में इतनी शक्ति भर लें जो कोई भी कर्मेन्द्रिय खींचे नहीं…

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पहले है आज्ञाकारी। छोटा बच्चा भी आज्ञाकारी मीठा लगता है। आनाकानी करने वाला, न आज्ञा मानने वाला अच्छा नहीं लगता। लगता है इसकी नेचर जि़द्दी हो जायेगी, अपनी मनमानी करेगा। आज्ञाकारी बनने में बड़ा सुख है। हमारे मात-पिता ऊंचे ते ऊंच भगवन हमारे कल्याण के लिये जो आज्ञा करते हैं, समझदार बनकर मुझे आज्ञाकारी बनना है। आज्ञाकारी बनने से फिर वफादार बनते हैं। बाबा के साथ सर्व सम्बन्धों में वफादार। कभी भूल से ख्याल भी न आये कि छोड़ कर कहीं चला जाऊं। ख्याल आना भी बड़ी भूल है। बाप को छोडऩे का, कहीं जाने का ख्याल आया तो फिर पढ़ाई से दिल नहीं लगेगी। वह ख्याल घड़ी-घड़ी तंग करेगा। फिर किसी के साथ स्वभाव का टक्कर हुआ तो छोड़ेंगे बाबा को। जिन्होंने बाबा को छोड़ा है, उनको बाबा ने कुछ कहा नहीं है, कहा किसी और ने और छोड़ते हैं बाबा को। तो हमारी नेचर छुई-मुई वाली, मुरझाने वाली न हो। जो जल्दी मुरझाते हैं उसमें शक्ति नहीं होती है। याद में रहने का रस नहीं है। देही अभिमानी स्थिति में कितना सुख है, अगर इसका रस बैठा हुआ हो तो जल्दी ही देह से न्यारे हो जायेंगे, आत्म दृष्टि से औरों को देेखेंगे। किसने ऐसा कुछ कहा तो एक कान से सुना दूसरे से निकाल दिया। जैसे सुना ही नहीं। सबके गुण देखेंगे। अच्छी चीज़ देख ली, न काम की चीज़ छोड़ दी। देही अभिमानी बनने से हमारी क्वालिटी हंस वाली बन जाती है। परखने की शक्ति अच्छी आती है। रत्न ले लिया, कंकड़ फेंक दिया। देही अभिमानी बनने से बाबा से सर्व शक्तियां खींच सकते हैं। देही अभिमानी बनने से हमारी बुद्धि शुद्ध पवित्र बन जाती है।
बाबा से शक्तियां खींचने के लिए बुद्धि शुद्ध चाहिए। अशुद्ध संकल्प, शक्ति को खत्म करते हैं। हमारे अन्दर भिन्न-भिन्न प्रकार की शक्तियां हैं। देहभान को छोडऩे से जो शक्ति पैदा होती है, उससे मन, कर्मेन्द्रियां कंट्रोल में आ जाती हैं। मन कर्मेन्द्रियों के वश नहीं रहता है। मन कर्मेन्द्रियों के वश में रहने से गुलाम बन जाते हैं। गुलाम सदा दु:खी होता है। जो भी गुलाम है तो गुलाम को दु:ख ज़रूर होता है। वह समझता है मैं अंडर हूँ, मुझे दबा कर चला रहे हैं, तो दु:ख होता है। बहुत काल से माया ने दबाकर जो दु:खी बनाया है वो दु:ख जाता नहीं है। और डर है फिर से माया आ न जाये, माया दबा न दे। लेकिन आत्म अभिमानी स्थिति से जो शक्ति आती है उससे हम निडर बन जाते हैं। मन कर्मेन्द्रियों के जैसे राजा बन जाते हैं।
तो पहले अपने में शक्ति भर लो जो कर्मेन्द्रिय खींचे नहीं। मन कभी चंचल न बने। इधर-उधर भटके नहीं। अभ्यास करके अन्दर यह शक्ति भर लो।

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