दादी जी का जीवन हम सभी के लिए एक झांकी

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पूर्ण विश्वास के साथ कार्य सौंपने की ताकत, व्यवस्था की जिम्मेवारी, बातचीत करने का सलीका, अपनापन देने का हुनर, सेवा को अहमियत, योग्य बनाकर योग्यता को सेवा में प्रयोग करने वाली, सभी को सजाने और संवारने का पूरा प्रबंधन, हम सभी को उमंग-उत्साह दिलाने वाली हम सबकी आदरणीय प्यारी दादी जी ही थीं।

दादी में कर्तापन का भान नहीं था
दादीजी की सबसे बड़ी विशेषता थी उनमें मैं-पन का सम्पूर्ण अभाव। हमने कभी भी उन्हें ‘मैं’ शब्द का उपयोग करते नहीं देखा। दादी के मुख्य प्रशासिका बनने से पहले भी मुम्बई में मुझे दादी के साथ रहने का अवसर मिला। उन्हें अपना विचार प्रकट करना भी होता था तो वे कहती थीं कि दादी का यह विचार है, दादी ऐसा करना चाहती है। हम सभी सामान्य रूप से यह कहते हैं कि मेरा यह विचार, मैं यह करना चाहती हूँ। परंतु दादी ने कभी क्रमैंञ्ज या क्रमेराञ्ज शब्द उपयोग नहीं किया। खुद का पार्ट भी वे साक्षी होकर बजाती थीं। उन्हें भले बैठकर अधिक समय योग करने का समय नहीं मिलता था लेकिन उनका हर कर्म ही योगयुक्त था। कर्म में ही बाबा की याद समाई होने के कारण उनके हर कर्म महान व श्रेष्ठ थे। उनमें कर्तापन का भान बिल्कुल नहीं था। वे सदा स्वयं को निमित्त व बाबा को करनकरावनहार समझती थीं। इस धारणा के कारण वे हर कर्म करते सहज न्यारा रहती थीं। वे सदा सभी को साथ लेकर चलती थीं इसलिए सभी उनसे प्रसन्न व संतुष्ट रहते थे। – राजयोगिनी ब्र.कु. संतोष दीदी,संयुक्त मुख्य प्रशासिका,ब्रह्माकुमारीज़

दादी का दिल बहुत विशाल था
दादीजी पूर्ण विश्वास के साथ मुझे कोई कार्य सौंपती थीं। जब मैं बिल्कुल नयी थी और किस कार्य को कैसे करना है नहीं आता था तो दादी कहती कि बाबा और दादी को आपमें विश्वास है कि आप इस कार्य को कर लेंगी। दादी का विश्वास मुझे सदैव प्रेरणा देता रहा। सभी सेवाओं के साथ-साथ मुझे विदेशी भाई-बहनों के आवास-निवास की व्यवस्था की जि़म्मेवारी भी सौंपी गई। दादी को सभी आत्माओं को मधुबन में बुलाना बहुत पसंद था, परंतु रहने का स्थान कम होने से पूरा भर जाता था और कई विदेशी भाई-बहनों को स्थान नहीं मिल पाता था। एक बार मैंने दादी से पूछा कि दादी हमारे पास अभी ज्य़ादा स्थान की सुविधा नहीं है तो और अधिक आत्माओं को क्यों बुलाना? तो दादी ने कहा कि ये बाबा का घर है, यदि दिल बड़ा हो तो सब कुछ संभव है। थोड़ा एडजस्ट करने और दुबारा व्यवस्था करने पर सब आसानी से हो जाता था। कई बार दादी स्वयं हॉल तथा ठहरने की व्यवस्था देखने जाती थीं। – राजयोगिनी ब्र.कु. शशिप्रभा दीदी, संयुक्त मुख्य प्रशासिका,ब्रह्माकुमारीज़

अक्षम्य को भी दादी करती क्षमा
दादीजी का दूसरों की गलतियों को क्षमा करने का स्वभाव दिल को छू जाता था। दादी कहती थीं कि बाबा, कौड़ी से हीरा, पतित से पावन व तमोप्रधान से सतोप्रधान बनाने आये हैं। हर आत्मा जो ईश्वरीय ज्ञान-योग का अभ्यास करती है, पुरुषार्थी है, सम्पूर्ण नहीं है। उन्होंने सदा सभी पर रहम किया और दिल से गलतियों को क्षमा कर दूसरों को भी बीती बातों को याद न करने की शिक्षा देती थीं। अपने हृदय को स्वच्छ, निर्मल, शक्तिशाली बनाकर फिर से पुरूषार्थ में लग जाने की प्रेरणा देती थीं। दादी का स्लोगन रहा, क्षमा करो और भूल जाओ। सभी को सम्मान देकर वे स्वयं सम्माननीय बन गईं। उनका व्यक्तित्व दिव्यता व अलौकिकता से सम्पन्न था। – राजयोगिनी ब्र.कु. आशा दीदी,निदेशिका ओआरसी,गुरुग्राम

हमने दादी को धरा पर फरिश्ते समान देखा
दादी जी की साधारण से साधारण बात में भी बड़ी ऊँची भावनाएं समाई होती थीं। दादी अक्सर सेवा-अर्थ देहली में आती थीं और पाण्डव भवन में रूकती थीं। एक बार जैसे ही हॉल में कार्यक्रम पूरा हुआ दादी बरामदे में आकर बैठीं, सभी वापस जा रहे थे। तभी एक परिवार की 5 वर्ष की बच्ची और 3 वर्ष का उसका भाई, बरामदे में आने की कोशिश कर रहे थे। वहाँ दो स्टैप थे चढऩे के, छोटा बच्चा चढ़ नहीं पा रहा था। बच्ची ने अपने भाई को उठा लिया, पर ठीक से उठा नहीं पा रही थी। जैसे-तैसे उसे छाती से लगाकर स्टैप चढकऱ बरामदे में आ गयी कि कहीं मेरा भाई गिर न जाये। दादी ये सब बड़े ध्यान से देख रही थीं। मैं दादी के पास ही खड़ी थीं। दादी ने कहा पुष्पा, देखा तुमने, कितना प्यार है इसको अपने भाई से। यह है प्यार। जैसे दादी के उस कहने में भी गहरी भावनाएं थीं और बड़े राज़ से दादी यह सब कह रही थीं। हमने अनुभव किया कि दादी की साधारण बात में भी बड़ी ऊँची भावनाएं, बेहद दृष्टिकोण, विशाल हृदय और शुभ कामनाएं समाई हुई होती थीं। दादी को मुरली सुनाते हुए मैंने कई बार सफेद-सफेद चमकते फरिश्ते के स्वरूप में देखा। मैं कईयों को सुनाती भी थी कि आज दादी धरती पर फरिश्ता स्वरूप थीं। – राजयोगिनी ब्र.कु. पुष्पा दीदी,अध्यक्षा न्यायविद प्रभाग,ब्रह्माकुमारीज़

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