इच्छाओं को कम करें और मन को शान्त रखें

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इच्छा का जन्म भी इच्छा से ही होता है और इच्छा का अन्त भी इच्छा से ही होता है। कठिनाई यही है आप यह कोशिश कीजिए कि ‘मेरा तो एक शिव बाबा और कोई नहीं’। बाबा ही मेरा संसार है। मुझे और कुछ नहीं चाहिए।

एकाग्रता है तो शिव बाबा से योग लगेगा। शिव बाबा है बिन्दु रूप, सूक्ष्मातिसूक्ष्म। उसके साथ आपका मन जुड़ेगा। अगर मन इधर-उधर भागेगा तो जुड़ेगा कैसे? मन इधर-उधर भागता क्यों है? क्योंकि एक तो उसको एकाग्र करने का अभ्यास नहीं है, दूसरा कुछ इच्छायें रही हुई हैं। अभी भी हमारे मन में इच्छायें रही हुई हैं। बहुत सारी इच्छायें रही हुई हैं। मुझे फलाने विभाग का अध्यक्ष बना दें, और कुछ नहीं तो फलाने कार्यालय का प्रबंधकर्ता बना दें। ये नहीं तो वो बना दें। यह है एक इच्छा। दूसरी इच्छा है कि फलाना व्यक्ति विदेश हो आया, उसकी दूसरी बारी भी आ गई, हूँ तो मैं भी पुराना, इस साल मेरी बारी लगी नहीं। क्या बात है? उनकी इच्छा यह है कि जाकर घूम आयें। कहते हैं कि सागर के ऊपर से एक पक्षी उड़ रहा था। उड़ता रहा, उड़ता रहा। जहाँ भी देखो उसको पानी ही पानी दिखाई पड़ रहा था। बैठने के लिए कोई जगह दिखायी नहीं पड़ी। फिर उसने देखा कि एक जहाज जा रहा था, उसके ऊपर बैठा। फिर वह उडऩे लगा, उड़ता रहा, कोई ठिकाना नहीं, थककर फिर आकर उसी जहाज पर बैठ गया। अरे आत्मन्, इस मन रूपी पक्षी को कहीं कोई ठिकाना है नहीं। तुम ढूंढकर देख लो। कोशिश करके देख लो। हम सब जानते तो हैं, दूसरों को सुनाते भी हैं लेकिन प्रैक्टिकल अपने लिए करते तो नहीं हैं। अगर हमारी इच्छायें बड़ी तीव्र गति की बनी रहेंगी तो योग लग नहीं सकता।
इच्छाओं को बिल्कुल खत्म नहीं कर सकते, उनको कम करो और उनकी गति को कम करो। क्योंकि इच्छा की जननी भी इच्छा ही है और इच्छा को रोकने वाला तरीका भी इच्छा ही है। इच्छा के बिना इच्छा को रोक भी नहीं सकते। देखिये यह विचित्रता कि इच्छा का जन्म भी इच्छा से ही होता है और इच्छा का अन्त भी इच्छा से ही होता है। कठिनाई यही है आप यह कोशिश कीजिए कि क्रक्रमेरा तो एक शिव बाबा और कोई नहीं। बाबा ही मेरा संसार है। मुझे और कुछ नहीं चाहिए। बाबा मिल गया, उसने मुझे भरपूर कर दिया, मैं मालामाल हो गया।ञ्जञ्ज देश जाना-विदेश जाना, उसमें क्या रखा है! आप जाकर देख लीजिए, सब आदमी एक जैसे ही हैं। सबकी नाक, आँख, कान इसी तरह के हैं। रंग का भेद ज़रूर है, थोड़ा बहुत बनावट में है फर्क। किसी की नासिका थोड़ी लम्बी या थोड़ी चौड़ी। मानव स्वभाव पूरी दुनिया में एक जैसा है। चीज़ वही है, किसी के ऊपर एक रंग का प्लास्टिक चढ़ा हुआ है, किसी के ऊपर दूसरे रंग का। वही नेचर है, उसी तरह के आदमी हैं। लेकिन लोग भरमा देते हैं। जब आपस में मिलते हैं तो एक दूसरे से पूछते रहते हैं कि आज तक तुमने कितने देश देखे? वह कहेगा, छह देश। फिर यह कहेगा कि ये तो कुछ भी नहीं, फलाना दस देश देखकर आया है। तुमको भी दस तो देखने चाहिए। दस देखने के बाद कहेगा, अरे, कम से कम बारह, एक दर्जन तो देखने चाहिए। अरे भाई, तुम्हारी यह इच्छा मिटने वाली नहीं है। काहे को भागता-दौड़ता है? आपने सुना होगा, एक पौराणिक कथा है। शंकर जी ने कार्तिकेय और गणपति से पूछा कि तुम दोनों में विश्व का चक्कर लगाकर मेरे पास कौन पहले पहुंचेगा? सबने सुना है ना!
बेचारा कार्तिकेय मोर लेकर भागा-भागा और भागता ही रहा। गणपति भागा ही नहीं, चुपचाप खड़ा रहा। शंकर जी ने उससे पूछा, क्या बात है भाई, तू तो भागता नहीं है, यह कैसे चलेगा? तब गणपति कहता है, आप हैं जहाँ पर, मेरे लिए सारी दुनिया वहीं है। समझा? तो यह समझने की बात है। अरे, मिल गया बाप, मिल गयी सारी दुनिया। हम यज्ञ में इसीलिए आये हैं कि बाबा आये हुए हैं। जिसको ढूंढने के लिए तो हम इधर-उधर भागते थे, भटकते थे। वो जहाँ आता है वहीं हम बैठे हुए हैं, तो और कहाँ बाहर कलियुग में जाना है? क्या करना है? जो काम हमारा बाप कर रहा है, वही काम हमें भी करना है।

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