एक विचारणीय विषय है। सोचना पड़ेगा इसपर। हम जब किसी से बात करते हैं धर्म की, पंथ की, समाज की, तो कहते हैं कि समाज में ऐसा चल रहा है तो हमको ऐसा सोचना पड़ता है। समाज की कुरीतियां, समाज की प्रथा, समाज की एक-एक बात हम सब उस बात को लेकर कहते हैं कि समाज में ये चल रहा है ना हमको ये करना पड़ेगा। ये एक बात सिद्ध करता है, बताता और जताता है कि समाज हमसे बना है या हम समाज से बने हैं? आप देखो समाज की सबसे छोटी इकाई को मनुष्य कहा जाता है। और वो मनुष्य जब इस जीवन में है, जब इस जीवन में कार्य कर रहा है तब तक वो समाज के साथ है अगर वो मनुष्य ही न हो तो उसके लिए तो समाज नहीं है ना। ऐसे ही हम जो भी सोच रहे हैं, बोल रहे हैं, कर रहे हैं वो सबकुछ समाज में रहकर नहीं बोल रहे हैं, समाज से अलग रहकर बोल रहे हैं। बातें समाज में जा रही हैं तो जैसा मैं एक इकाई हूँ, या एक यूनिट हूँ समाज का और अगर मेरे चाल, चलन, व्यवहार, ये तीनों चीज़ों में बदलाव आयेगा तो इसका इफेक्ट कहाँ पड़ेगा? समाज में। इसलिए समाज को कभी भी दोष देकर हम बच नहीं सकते कि समाज ने हमारे साथ ऐसा किया, समाज में लोग ऐसे हैं, नहीं हम ऐसे हैं इसलिए समाज भी वो वाला वातावरण बनता जा रहा है। तो समाज का वातावरण बदलना हमारे हाथ में है क्योंकि हमसे समाज है। समाज से हम नहीं हैं। तो अगर हम अपने अन्दर के वातावरण को बदलें, शांति, प्रेम, पवित्रता वाला वातावरण रखें तो उस वातावरण से बाहर का वातावरण ऑटोमेटिकली बदलता चला जायेगा। और वो वातावरण समाज में एक पैरामीटर सेट करेगा जिसपर चलकर सभी बड़े खुश होंगे। देखिए समाज के एक-एक ईकाई की जि़म्मेवारी है कि अपनी मदद खुद करें और अपने आपको समाज से जोडक़र नहीं समाज से अलग होकर देखें तो समाज के लिए कुछ कर पायेंगे।