बाबा की श्रीमत है बच्चे मन-वचन-कर्म से सेवा करो। अगर हम मन-वचन-कर्म से सेवा नहीं करते हैं तो यह भी एक इनडायरेक्ट सेवा लेते हैं और उसका भी बहुत बोझ चढ़ता है।

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हम सभी दुनिया के लिए लाइट हाउस हैं अथवा सर्चलाइट देने के निमित्त हैं। सर्चलाइट के बीच अगर कोई डिफेक्ट हो जाये तो सामने आने वाला जो शिप है, उसे सही रास्ता नहीं मिलेगा। हमारी मन्सा के सूक्ष्म संकल्प ऐसे हों जो चारों तरफ हमारे वायब्रेशन फैलें और दूसरों को प्रेरणा मिले। आकर्षण हो, साक्षात्कार हो। हम सभी ऐसे एक्ज़ाम्पल रहें, खुद को ऐसा समझें कि मैं जो कर्म करूँगा मुझे देख हरेक करेगा, तो इसके लिए हरेक जवाबदार है। जैसा मैं कर्म करूँगा मुझे देख सब करेंगे- यह सूक्ष्म की जवाबदारी हम सबके ऊपर है। हम जिस तरह भी अपनी स्थितियां रखेंगे ऐसी स्थिति का वायब्रेशन फैलेगा।
हम सबके हर संकल्प, हर कर्म में, हर वक्त बेहद ईश्वरीय परिवार की जि़म्मेवारी है, सूक्ष्म वायब्रेशन से शक्ति देने की। तो हमारे कर्मों की गति बड़ी गहन है। प्यारे बाबा ने जो हमें श्रीमत दी है उसी श्रीमत पर हमें कदम बाय कदम चलना है। श्रीमत में बाबा ने कहा है कि तुम्हें श्रीमत है मर्यादा पुरुषोत्तम रहो। जितना हम मर्यादा पुरुषोत्तम बनेंगे उतना हमें देख दूसरे भी मर्यादा में रहेंगे इसलिए जैसे हमें मर्यादा में श्रीमत मिलती कि अमृतवेले उठकर बाबा की याद में रहना है, यह हम हरेक की जि़म्मेदारी है। हमारी मर्यादा में ज्ञान सागर बाबा जो ज्ञान रत्नों की मुरली नित्य सुनाता है, उसे सुनना है, मनन करना है, यह हमारी मूल जि़म्मेदारी है। अगर इस श्रीमत का पालन किसी भी कारण से नहीं करते तो यह भी अलबेलापन है, इसमें सूक्ष्म अपनी सुस्ती है। हम ऐसा मानती कि बाबा की श्रीमत पर चलने वाले के ऊपर आशीर्वाद है, दुआयें हैं, वरदान है। परन्तु अगर हम कदम-कदम श्रीमत पर नहीं चलते तो भगवान की दुआयें और वरदानों से मिस होते, दूसरा श्रीमत की अवज्ञा बहुत बड़ा सूक्ष्म पाप का भागी बनाती हैं। यह भी बोझ हो जाता है, जो बोझ अवस्थाओं को ऊंचा चढऩे में विघ्न बनता है।
बाबा की श्रीमत है बच्चे मन-वचन-कर्म से सेवा करो। अगर हम मन-वचन-कर्म से सेवा नहीं करते हैं तो यह भी एक इनडायरेक्ट सेवा लेते हैं और उसका भी बहुत बोझ चढ़ता है। जैसे कहा जाता है- आये हैं हम पुण्य कमाने लेकिन पुण्य कमाने के पीछे पुण्य की गंवाई हो जाती है। और फिर उसमें अपनी श्रीमत की धारणा नहीं रहती तो पुण्य के बदले पाप हो जाता है। फिर सूक्ष्म विकर्म विनाश नहीं होते तो मायाजीत भी नहीं बन सकते।
जैसे बाबा कहते तुम बच्चे किसी को दु:ख न दो लेकिन यह मर्यादाओं का उल्लंघन करना भी सूक्ष्म दु:ख देना है। इससे भी पुण्य के बदले पाप हो बोझ चढ़ता है इसलिए हमारे कर्मों की गति बड़ी गहन है। जो भी कर्म हम करते, सेवा करते, पालना करते, पालना लेते हरेक में बहुत बड़ी कर्मों की मशीनरी काम करती है। हमारे संग से दूसरे को भी श्रेष्ठ कर्म करने की प्रेरणा मिले। हमारा ऐसा संग न हो जो किसी को संगदोष लग जाए। और ही वह हमारे से ऊंच दृष्टि लेने के बदले नफरत, ईष्र्या, द्वेष आदि में आये, उसमें रीस पैदा हो। करनी है रेस लेकिन हो जाती है रीस- उसी से बोझ चढ़ता है।
चलते-चलते बहुतों में देह अभिमान बढ़ता जाता है। एक होता है देह अभिमान, दूसरा होता है मैं पन का नशा। देह अभिमान फिर भी मोटा है लेकिन मैं पन का नशा बहुत सूक्ष्म है। चाहे अपनी बुद्धि का, चाहे अपनी सेवाओं का, चाहे किसी भी प्रकार का अगर नशा चढ़ता है तो वह नशा भी नुकसान करता है। नारायणी नशे के बदले देह अभिमान का नशा चढ़ गया तो बहुत नुकसान होता। कोई को भाषण का भी नशा चढ़ जाता, तो वह भी नहीं चढऩा चाहिए, उससे भी बड़ा नुकसान होता।
नशे की निशानी है- 1. सूक्ष्म समझते हैं वाह रे मैं! 2. स्वयं को ही राइट समझते, दूसरों को नीचा समझते। वह कभी नम्रचित्त नहीं रह सकते। जो नम्रचित्त नहीं बनेगा वह निर्माण का काम भी नहीं कर सकेगा इसलिए हम सभी निमित्त हैं इस शब्द को कभी भूलो नहीं। हम निमित्त वालों को सदैव कदम-कदम पर सावधानी चाहिए। उठो, चलो, बैठो, खाओ, पियो, पहनो सब कर्मों की गति अपनी है इसलिए हर कदम में बहुत-बहुत ध्यान रखना ज़रूरी है।
बाबा के हम सभी बच्चे दर्शनीय मूर्त हैं। इस चेहरे से, सूरत से बाबा की सीरत दिखाने के निमित्त हैं। तो हम दर्शनीय मूर्त की धारणा कितनी श्रेष्ठ होनी चाहिए, कितनी महान होनी चाहिए यह हरेक खुद देख-सोच सकते हैं इसलिए जो भी कोई सूक्ष्म वृत्ति है उसको परिवर्तन करो।
अन्तर्मुखी बनो, बाह्यमुखता की वृत्तियों का परिवर्तन करो। बाह्यमुखता की वृत्तियों को हमें कछुए की तरह समेटकर अन्तर्मुखी बनना है।

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