अन्तिम परीक्षा-पत्र का प्रश्न अगर पहले ही मिल जाये तो…!!!

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सारा कल्प सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग में सुख, मान, मर्तबा, यश, पदार्थ, धन, दौलत ये सब प्राप्त होता है। जबकि हम जानते हैं परमात्मा द्वारा मन इच्छित फल प्राप्त होता है लेकिन फिर भी हमारी याद निरंतर नहीं रहती, उसे भूल जाते हैं। जो सुख इस छोटे से संगमयुग पर परमात्मा की याद से मन को प्राप्त होता है, वो और कहीं नहीं होता। जिसको हम अतीन्द्रिय सुख कहते हैं। निरंतर याद न रहने के कारण कई हो सकते हैं परंतु अगर हम छोटा-सा अभ्यास कर अपनी कर्णेन्द्रिय पर ध्यान दें तो बाहर से आने वाले व्यर्थ को रोकने में हम समर्थ हो जायेंगे। तब हम अतीन्द्रिय सुख का अनुभव कर सकेंगे।

लौकिक विश्वविद्यालय में उसी समय परीक्षा का प्रश्न बताया जाता है लेकिन ईश्वरीय विश्व विद्यालय में परीक्षा के प्रश्नों को पहले से बताया जाता है। अगर लौकिक प्रश्न-पत्र आउट हो जाये तो विद्यार्थीगण बाहर आ जाते हैं, विरोध करते हैं, हड़ताल करते हैं और परीक्षा फिर से होती है। लेकिन यहाँ बाबा ने बता दिया है कि नष्टोमोहा और स्मृतिर्लब्धा – ये दो हमारे आखिर प्रश्न-पत्र हैं। इनमें जो पास होंगे वही पास विद् ऑनर होंगे। नष्टोमोहा और स्मृतिर्लब्धा हम कैसे होंगे? बाबा कहते हैं कि यह संगम का समय चल रहा है। कलियुग जा रहा है और सतयुग आ रहा है। संगमयुगी जीवन में आप अतीन्द्रिय सुख प्राप्त कर सकते हैं, बाकी सारा कल्प – सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग में सिर्फ सुख प्राप्त कर सकते हैं। इन युगों में धन, यश, पदार्थ, मान, मर्तबा, सांसारिक साधन और क्षणभंगुर सुख-शांति भी हो सकते हैं लेकिन अतीन्द्रिय सुख नहीं होता। सतयुग और त्रेतायुग में सुख तो होता ही है, बाकी द्वापर कलियुग में सुख होता नहीं। इन चारों युगों में अतीन्द्रिय सुख नहीं होता। ज्ञान से, योग से, पवित्रता से, ईश्वरीय शक्ति से, रूहानियत से जो अतीन्द्रिय सुख मिलता है, वह सिर्फ इस पुरुषोत्तम कल्याणकारी संगमयुग पर मिलता है।
पवित्रता का सुख सब से श्रेष्ठ सुख है। इसी में ईश्वरीय स्मृति(परमात्मा की याद) की रसना में मन तल्लीन हो जाता है, याद की रसना में डूब जाता है। इस सुख को कई लोग समाधि कहते हैं, कई ऐक्य अवस्था कहते हैं, कई लवलीन अवस्था कहते हैं, वही अतीन्द्रिय सुख है। यह सुख सिर्फ योगी को मिलता है। खाने-पीने से, देखने-करने से जो सुख मिलता है वो यह सुख नहीं, उस सुख को इन्द्रिय सुख कहते हैं। मन को डायरेक्ट परमात्मा से जोडऩे से मन को जो सुख मिलता है उसको इन्द्रियातीत अथवा अतीन्द्रिय सुख कहते हैं। वो सुख केवल संगमयुग के थोड़े से समय में मिलता है। यह सुख अनमोल है, यह कल्प में एक ही बार प्राप्त होता है। जो चीज़ एक ही बार प्राप्त होती है उसका मूल्य और महत्त्व बहुत होता है। यह सुख तब मिल सकता है जब आप बाप समान बनें। बाप समान बनने का मतलब है पवित्र बनना और योगी बनना। जीवन में निर्मलता को लाने से और ईश्वरीय स्मृति अथवा बाबा की याद में निरन्तर रहने से यह अतीन्द्रिय सुख प्राप्त होता है। याद में अन्तर पडऩे से मन की स्थिति में भी अन्तर पड़ जाता है। निरन्तर बनने में अन्तर क्यों पड़ता है और उसका निवारण क्या है तथा निरन्तर बनाये रखने में बाधायें क्या हैं और उनका निवारण क्या है – इन बातों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
पढ़ाई में ध्यान रखना और याद रखना बहुत ज़रूरी होता है। हम बाबा को क्यों भूलते हैं जबकि याद से हमारे जन्म-जन्मान्तर के विकर्म दग्ध होते हैं और हमारा भविष्य भी बनता है? बाबा कहते हैं, बच्चे, अपना चार्ट रखो। हम चार्ट में देखते हैं कि हमने किसी को दु:ख तो नहीं दिया और किसी से दु:ख तो नहीं लिया? ठीक है, दु:ख न दिया और न लिया लेकिन सुख दिया? दु:ख नहीं दिया तो इसका अर्थ हुआ कि आपने विकर्म नहीं किया परन्तु सुकर्म किया? परमात्मा को कहा जाता है दु:खहर्ता और सुखकर्ता बाबा दु:ख दूर भी करता है और सुख भी देता है। इसी प्रकार, आपने दूसरों को दु:ख नहीं दिया, बहुत अच्छा; परन्तु उनका दु:ख दूर करके सुख दिया? परमात्मा से आपने जो अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति की है उसकी अनुभूति दूसरों को कराई? स्वयं अतीन्द्रिय सुख में तो रहे लेकिन दूसरों को उससे वंचित क्यों किया? हमने पूरे दिन में कोई बुरा काम नहीं किया, निगेटिव नहीं किया आगे के लिए कोई हिसाब-किताब नहीं बनाया, बोझ नहीं चढ़ाया, यह तो अच्छा है लेकिन आगे के लिए जमा क्या किया? पाप न करके पुराना खाता बढ़ाया नहीं, कम किया लेकिन खाते में पुण्य जमा तो नहीं हुआ। बुरा नहीं किया जिसकी सज़ा न मिले, यह तो ठीक है लेकिन अच्छा तो नहीं किया जिसका फल मिले! भविष्य में जो प्राप्ति होगी वह किस आधार पर होगी? अच्छा करोगे तो अच्छा पाओगे। किसी को आपने मन-वचन-कर्म से मन की राहत दी? शांति और सुख दिया? किसी को ठीक रास्ते पर लगाया? जो आपको बाबा ने गुण दिया, ज्ञान दिया, शक्ति दी, रूहानियत दी है वो किसी को दी? वो नहीं दी तो आपने किसी को अतीन्द्रिय सुख दिया नहीं। अगर नहीं दिया है तो इसका अर्थ यह हुआ कि आपके पास वो चीज़ है ही नहीं। आपने अतीन्द्रिय सुख का अनुभव किया ही नहीं है इसीलिए किसी को आपने दिया नहीं।

याद निरंतर क्यों नहीं रहती…
जैसी हमारी स्थिति होती है वैसी हमारी कृति होती है। हमारे कर्म हमारी स्थिति पर आधारित हैं। इसलिए बाबा कहते हैं, अन्तर पड़ जाता है और याद निरन्तर नहीं रह सकती। अन्तर क्यों पड़ता है, उसके कई कारण बाबा ने बताये हैं लेकिन हम बच्चे भूल जाते हैं। एक बच्चे की कहानी सुनाते हैं ना! माँ ने अपने बच्चे को कहा, यह 10 रूपये लेकर जाओ और दुकान से 10 रूपये की मँूग की दाल लेकर आओ, मूँग की ही लाना, चने की नहीं। वो बच्चा रास्ते में, 10 रूपये की मूँग की दाल, 10 रूपये की मूँग की दाल कहता गया याद रखने के लिए। बीच रास्ते में कोई खेल चल रहा था उसको देखते हुए रूक गया। थोड़े समय के बाद याद आया कि उसको दुकान जाना है तो फिर चल पड़ा। उस दृश्य को देखने के कारण वह भूल गया कि कौन-सी दाल लेनी है। वह लेकर गया चने की दाल। माँ कहने लगी, मैंने कहा था कि मूँग की दाल, तू ले आया चने की दाल। जिस काम के लिए वह गया था वही भूल गया। उसी प्रकार, बाबा ने भी हमें कहा है कि शिव बाबा को याद करो, देहधारियों को याद न करो। फिर भी हम शिव बाबा को भूल जाते हैं और देहधारियों को याद करते हैं। क्यों ऐसा होता है?

गलती करने पर बच्चों से कान ही क्यों पकड़वाते हैं? सब दुकानें किसी न किसी दिन बंद होती हैं लेकिन दो कान हमेशा खुले रहते हैं। आदमी सोया हुआ भी होगा ना तो भी ये दुकान-दोकान खुले रहते हैं। आँखें बंद कर सकते हैं, मुँह बंद कर सकते हैं लेकिन कानों को कभी बन्द नहीं करते। जब हम दो कानों से दूसरों की व्यर्थ बातें सुनते हैं जिसको बाबा झरमुई-झगमुई कहते हैं तो इससे हमारा समय, शक्ति सब व्यर्थ चला जाता है। इसलिए हम अपने कान ठीक काम में लगा दें। देखिए, स्कूल में कोई बच्चा गलती करता है तो उसको कान पकडऩे को कहते हैं अथवा उसको मुर्गा बनाते हैं। उसमें भी उस बच्चे को अपने ही कानों को पकडऩा पड़ता है। व्यक्ति अपनी की हुई गलती पर माफी मांगने के लिए अपने कान खुद पकड़ता है। सारा शरीर पड़ा है, फिर भी कानों को क्यों पकड़वाते हैं? क्योंकि कोई भी व्यक्ति बुरा सोचता है, बुरा बोलता है और बुरा करता है लेकिन उसमें पहले उसने बुरा सुना होता है। बुरा सुनना ही सब बुराइयों की बुनियाद है। अगर वह बुरा सुनेगा नहीं तो उसकी बुद्धि बुरे की तरफ जायेगी ही नहीं। तो पहले दो कानों रूपी दुकान को बंद करना है। अगर मोहल्ले में कोई दंगा होता है तो सबसे पहले दुकान ही बंद करते हैं। इसलिए बाबा कहते हैं बुरा सुनना, व्यर्थ सुनना बन्द करो। बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो। पहले कहा जाता है, बुरा मत सुनो। सुनने से सबकुछ गड़बड़ होता है। बाबा कहते हैं मेरी बातें ही सुनो, देखो और बोलो। बच्चों को कान पकड़वाते हैं कि आगे से ऐसी बात नहीं सुनूँगा। निरन्तर याद में अन्तर आने का एक कारण है बुरा अथवा व्यर्थ बातें सुनना।


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