जैसे हमारे संकल्प… वैसी हमारी दुनिया…

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स्मृति रूपी नांव में ही यह जीवन की यात्रा जब हम करेंगे तब इस कलियुगी ठौर से सतयुगी ठौर की ओर जायेंगे। दूसरा कोई तरीका नहीं

संकल्प कितनी महान शक्ति है, जिससे सृष्टि को बदला जाता है। संकल्प कोई साधारण चीज़ नहीं है। ऐसे नहीं मेरा संकल्प उठा उसको दबा दिया, संकल्प चला उसको मुख में लाकर वर्णन कर दिया। संकल्प चला हमने कर्म में लाकर कोई नुकसान कर दिया, किसी को दु:ख दे दिया। तो यह संकल्प से जो हम कार्य करते रहते हैं यह हमारे साधारण, लौकिक, विकार युक्त संकल्प हैं। दिन भर में कितने संकल्प हम करते हैं, उठते-बैठते संकल्प से ही तो हैं। हमारी सारी हलचल संकल्प से ही होती है।
कल्प और संकल्प सम्बन्धित है। यह कल्प क्या है, कल्प को कल्प क्यों कहते हैं? हमारे जो पाँच हज़ार वर्ष तक अलग-अलग संकल्प चलते रहते हैं, उसके बाद फिर रिपीट होने लगते हैं। तो जब तक भिन्न-भिन्न संकल्प चलते हैं, उस समय की अवधि पाँच हज़ार वर्ष है। तो संकल्प से हमारा कल्प, हमारा भाग्य बनता है। हम महानता की ओर जाते हैं या पतन की ओर जाते हैं। तो क्या आप इसको इतना महत्व देते हैं या उसको ऐसे ही खर्च कर देते हैं? तो हम लोगों के पास जो संकल्प रूपी अनमोल धन है, उससे हम कहाँ पहुंच सकते हैं- यह सोचने की बात है। कितनी महान हमारी स्थिति हो सकती है। लेकिन हम जो संकल्प रूपी धन को गंवाते हैं तो संकल्प के महत्व को नहीं जानते, हमारी वृत्तियां बदलती रहती हैं- कभी अशुद्ध, कभी शुद्ध, कभी देहअभिमान जनित, कभी आत्म अभिमान जनित, कभी योगयुक्त और कभी योगभ्रष्ट… तो कोई व्यक्ति अगर पाँच कदम आगे बढ़े और दस कदम वापिस लौट आये तो उसने प्रगति की या अवनति की? ऐसे ही अगर हमने ट्रैफिक कंट्रोल के समय कुछ अच्छे संकल्प लिये, हमारी वृत्ति अच्छी रही और बाकी समय में अगर हमारी वृत्ति खराब रही, जितना फासला हमने योग के द्वारा तय किया, उसके बाद दिनभर में हम लोगों के अवगुण नोट करते रहे, उनसे हमारा व्यवहार श्रेष्ठ नहीं रहा, हमारी वृत्ति सर्वोत्तम, सतोप्रधान देवी-देवताओं जैसी निर्मल, सन्तुष्ट, हर्षित चित्त होनी चाहिए,वह वृत्ति कैसे होगी? अगर हमारी वृत्ति, दृष्टि कभी कुछ है, कभी कुछ है, अभी-अभी उमंग-उत्साह है, शूरवीर योगी हैं और किसी ने कुछ कह दिया, नाज़ुक इतने हैं कि दिल की कली मुरझा गई।
योग भोग सब एक तरफ रखके बैठ गये, खाना भी स्वीकार नहीं और हम अश्रुधारा बहाने लगे तो क्या हमने किया? हमारी क्या स्थिति रही? अप एंड डाउन। तो प्रगति कैसे होगी? और प्रगति नहीं होगी तो मन सन्तुष्ट कैसे होगा! सन्तुष्ट नहीं होगा तो हर्षित कैसे होगा! और अगर संतुष्ट भी नहीं, हर्षित भी नहीं तो ज़रूर किसी से नाराज़ होगा तो उसमें वह प्रेम भी कैसे होगा। और अगर यह सब नहीं होगा तो उसकी सतोप्रधान वृत्ति कैसे होगी! फिर हम मनुष्य से देवता बनेंगे कैसे? तो हमें अपने संकल्पों का, अपनी वृत्ति को ठीक रखने का महत्व नहीं मालूम। लेकिन विशेष रूप से योगी का कोई शत्रु नहीं, यह बात बहुत-बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि योग का अर्थ है याद और याद दो की आती है या तो जिसे आपकी घनिष्ठ मित्रता है, जिसके आप बहुत नज़दीक हों, जिससे आपका मन जुड़ा हुआ हो, आप एक-दूसरे को पसंद करते हों, उनकी बातें अच्छी लगती हों, उनकी जीवन पद्धति ठीक लगती हो या जो शत्रु हैं उनकी याद आती है। कहेंगे इसने तो हमें बहुत तंग कर रखा है। जबसे यह हमारे जीवन में प्रवेश हुआ है हम परेशान हैं। यह तो हमें चैन लेने ही नहीं देता है। उससे ही हमारा मनमुटाव होता है, नाराज़गी होती है, हमारी अवस्था डाउन होती है। ईर्ष्या-द्वेष उससे ही होता है। आप उसे शत्रु शब्द से सम्बोधित न करते हों, लेकिन उसके प्रति वृत्ति ऐसे ही होती है। उससे ओम शांति भी करेंगे तो वह ओम शांति दूसरे प्रकार की होती है।
कई तो शिकायत से डरकर ओम शान्ति करते हैं क्योंकि सोचते हैं कि यह बात बड़ों तक न पहुंच जाए कि इनकी आपस में बोल-चाल नहीं है, यह प्यार से ओम शान्ति भी नहीं करते। तो वह खतरा हो जायेगा, उस खतरे से बचने के लिए ओम शान्ति कह देते। तो जिसको वृत्ति में, संकल्प में या स्मृति में भी हमने शत्रु मान लिया तो हमारी लुटिया डूब गई। हम तैर नहीं सकते, इस संसार सागर, भवसागर के पास नहीं हो सकते हैं क्योंकि हमें यहाँ से तैरकर ले जाने वाली स्मृति है। स्मृति रूपी नांव में ही यह जीवन की यात्रा जब हम करेंगे तब इस कलियुगी ठौर से सतयुगी ठौर की ओर जायेंगे। दूसरा कोई तरीका नहीं क्योंकि कहा गया है ”आप जैसा सोचेंगे वैसा बनेंगे”। बनने का और कोई तरीका नहीं है।

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