श्रेष्ठ कर्मों की सत्ता

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आपने हरेक मनुष्य को कहीं न कहीं डरते हुए अवश्य देखा होगा। मनुष्य डरता क्यों है, छोटी-छोटी बातों में परेशान क्यों हो जाता है? उसका कारण अगर आप देखेंगे तो ज़रूर मनुष्य को डर सिर्फ एक चीज़ से है वो हैं उसके कर्म। धर्म जो शरीरों के बने उनको अगर हम एक तरफ रख दें तो आज सबको कर्मों का बहुत डर है। क्योंकि कर्म ठीक नहीं हैं इसीलिए शायद आज गंगा के घाटों पर इतनी भीड़ होती है कि अगर हम इसमें चार डुबकी लगा दें तो शायद हमारे कर्म, पाप कर्म नष्ट हो जायें और हम इससे मुक्त हो जायेंगे। लेकिन फिर भी वही पाप कर्म करके पछतावा। तो सोचो एक हमारे पास अथॉरिटी है लेकिन वो कर्म हमारी अथॉरिटी नहीं बन पा रहा है। मतलब हम अथॉरिटी से कर्म नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि न हमको कर्म करने की प्रेरणा कहीं से आती है कि अथॉरिटी वाला कर्म है क्या, कैसे मानें कि ये अथॉरिटी वाला कर्म है! इसके आगे कोई मार्जिन नहीं है, जो भी है सब यही है।
इस बात को सिखाने वाले इस दुनिया में कोई पैदा नहीं हुआ। इसीलिए परमात्मा शिव निराकार ज्योति बिन्दु इस धरती पर आकर हमको श्रेष्ठ कर्म करना सिखाते हैं और श्रेष्ठ कर्म की सत्ता क्या है उसके बारे में बताते हैं। बताया किसके द्वारा? इस धरती के प्रथम मानव प्रजापिता ब्रह्मा के द्वारा कि श्रेष्ठ कर्म क्या होते हैं और कैसे उन कर्मों को देखा जाये,परखा जाये। दुनिया में सबके पास आज पॉलिटिकल पॉवर है, रिलीजियस पॉवर है, और साइंस पॉवर भी है लेकिन इन तीनों पॉवर का इस्तेमाल सही रूप से अगर कोई कर सकता है तो वो है श्रेष्ठ कर्म वाला। क्योंकि जो श्रेष्ठ कर्म वाला है वो धर्म को भी सम्भालेगा मतलब अच्छी धारणायें भी कर लेगा। जो श्रेष्ठ कर्म वाला है वो राज्य कारोबार को भी अच्छे से चला लेगा। क्योंकि राज्य को चलाने के लिए हमको अच्छी सोच और अच्छे संकल्पों की ज़रूरत है।
आत्मा अगर अपनी इन्द्रियों का राजा बन जाये। सबसे पहले अपनी ज्ञानेन्द्रियों, अपनी कर्मेन्द्रियों को अपने वश में कर ले तो इस दुनिया के किसी भी व्यक्ति को वश में करना बहुत आसान है। लेकिन हमारे जो कर्म हैं वो सबसे पहले सोच से शुरू होते हैं, मन्सा से। फिर वो वाचा तक आते हैं और फिर कर्मणा तक अन्तिम परिणाम देते हैं। आपको पता ही है जब कोई कर्म हमसे एक बार हो जाता है तो उसका पश्चाताप होता है। शिव बाबा(परमात्मा) एक बात बहुत अच्छी तरह से कहते हैं या सिखाते हैं कि जैसे हम कहते हैं कि हम चाहते नहीं थे लेकिन हमसे हो गया। शिव बाबा कहते हैं कि आपने चाहा है तभी तो हुआ। ऐसा हो ही नहीं सकता कि आप न चाहें और हो जाये! इसलिए श्रेष्ठ कर्म की पहली अथॉरिटी शुरू होती है मन से। हमारे मन में संकल्प कोई दूसरा नहीं डाल रहा है,हम खुद ही डाल रहे हैं। खुद ही उसको वाचा तक लाते हैं और फिर कर्म तक लाते हैं। बिना हमारे मन्सा के वो संकल्प आये वो कर्म हो ही नहीं सकता। और ये बात न मानना भी एक तरह की जि़द्द है, एक तरह का विकार है। एक तरह से अस्वीकार करने की भावना है। अपने को न स्वीकार करने की दुर्भावना है।
कुछ भी आप कह लें क्योंकि जब तक मनुष्य स्वयं को स्वीकार नहीं करेगा कि मैं यहाँ-यहाँ गलत हूँ तब तक वो अच्छे कर्म कर ही नहीं सकता। परमात्मा कहते हैं कि श्रेष्ठ कर्म की सत्ता अर्थात् कर्म का वर्तमान फल खुशी देगा और शक्ति अनुभव करायेगा। साथ-साथ भविष्य में जो हम कर्म करेंगे उस कर्म का फल जमा होगा, और उसका नशा भी होगा। इसका एक उदाहरण आप देख सकते हैं कि व्यक्ति किसी ऐसे स्थान पर जाता है या व्यक्ति किसी ऐसी परिस्थिति में होता है जो उसको पता है कि ये चीज़ गलत है। साधारण कर्म करना सबको आता है- उठना, बैठना, खाना, पीना, सबकुछ ये कर्म साधारण कर्म हैं। जो कि नौकरी है, धंधा है, बातें हैं सब कर्म साधारण हैं। लेकिन श्रेष्ठ कर्म,श्रेष्ठ सोच से शुरू होता है और वो सोच है कि हम विश्व के मालिक हैं।
हमको विश्व का मालिक बनना है तो हमको सबसे पहले सबके लिए अच्छा सोचना होगा। अब यहाँ सबके लिए अच्छा सोचने का सीधा-सीधा अर्थ है कि मैं भी उसमें शामिल हूँ। क्योंकि सोच मैं रहा हूँ और जब सोच मैं रहा हूँ तो निश्चित रूप से सबसे पहले कल्याण भी मेरा ही होगा! अब देखो भविष्य हमारा बन गया सिर्फ किससे बना? हमारी बड़ी सोच से। वो सोच हमारा श्रेष्ठ कर्म बन गया क्योंकि सोच मैं रहा हूँ। तो जैसे ही हम ऊंची सोच, ऊंचे दायरे में जाते हैं, पूरे विश्व को अपना परिवार मानने लग जाते हैं, सभी के साथ एक जैसी स्थिति होती है तो मेरे कर्मों में दृढ़ता आती है। आप ध्यान से देखो तो श्रेष्ठ कर्म में इतनी गहरी शांति है, इतना गहरा सुकून है कि उस सुकून को लेने के बाद आपको और कुछ मार्जिन रह नहीं जाती।
इस दुनिया की जितनी भी सत्तायें हैं, जितनी भी अथॉरिटीज हैं, उन अथॉरिटीज में भी दम रहा। उसका मात्र एक कारण है कि उन अथॉरिटीज को यूज़ करने वाला मनुष्य ही तो है! लेकिन मनुष्य के कर्म अगर श्रेष्ठ नहीं हैं, विचारों में अगर श्रेष्ठता नहीं है, भावनाओं में अगर श्रेेष्ठता नहीं है, सबके लिए भाव अगर शुद्ध नहीं हैं तो वो चीज़ भी उनको सुख नहीं देती है। एक उदाहरण है जैसे घर में बहुत अच्छे-अच्छे उपकरण हैं लेकिन सबके हाथ से वो गिरता रहता है, वो टूटता रहता है कभी कुछ हो जायेगा, कभी कुछ हो जायेगा। तो ये क्यों हो रहा है? क्योंकि हमारे कर्म वायब्रेट करते हैं। अगर मनुष्य पूरी तरह से सत्य नहीं है, श्रेष्ठ नहीं है, मन के भाव अच्छे नहीं है तो वो किसी चीज़ का इस्तेमाल सही तरह से कर भी नहीं सकता। इसलिए श्रेष्ठ कर्म की सत्ता के लिए मार्जिन नहीं है। मार्जिन का मतलब इसके आगे कुछ नहीं है। अगर हमने एक बार श्रेष्ठ कर्म कर दिया तो आपको उसके आगे-पीछे सोचने की ज़रूरत ही नहीं है। वो निश्चित रूप से फल ही देगा लेकिन सिर्फ इतना याद रहे कि मैं निमित्त रूप से ये कर्म कर रहा हूँ। और इस कर्म से सबको सुख मिलना ही है। इसलिए श्रेष्ठ कर्म रूपी जीवन अगर इतना अच्छा न होता तो आज परमात्मा आ करके इतने सालों से हमको ये सब बातें न सिखा रहा होता, इसलिए सारी सत्ताओं का सार श्रेष्ठ कर्म की सत्ता है और श्रेष्ठ कर्म की सत्ता को जिसने एक बार भी अपना लिया वो विश्व का मालिक है ही है। उसके ऊपर कुछ भी नहीं आगे चल सकता।

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