मुख पृष्ठब्र.कु. जगदीशसंकल्प करना आधा कार्य करने के बराबर है

संकल्प करना आधा कार्य करने के बराबर है

मन रूपी सिंहासन पर एक ही राजा बैठ सकता है। एक नगरी का एक ही राजा होता है। चाहे आप इस मन रूपी सिंहासन पर शिवबाबा को बिठा दीजिए, चाहे शत्रु को बिठा दीजिए।

पिछले अंक में आपने पढ़ा कि जिसको वृत्ति में, संकल्प में या स्मृति में भी हमने शत्रु मान लिया तो हमारी लुटिया डूब गई। हम तैर नहीं सकते, इस संसार सागर, भवसागर के पास नहीं हो सकते हैं क्योंकि हमें यहाँ से तैरकर ले जाने वाली स्मृति है। स्मृति रूपी नांव में ही यह जीवन की यात्रा जब हम करेंगे तब इस कलियुगी ठौर से सतयुगी ठौर की ओर जायेंगे। दूसरा कोई तरीका नहीं क्योंकि कहा गया है ”आप जैसा सोचेंगे वैसा बनेंगे”। बनने का और कोई तरीका नहीं है। अब आगे… बाबा ने भी कह दिया है कि आप अगर ठीक बनना चाहते हैं तो ठीक प्रकार की स्मृति रखो। गिरावट आई है- खराब बातों की स्मृति से, खराब संकल्पों से, खराब वृत्ति से। स्मृति, वृत्ति और संकल्प गिरने-गिराने का साधन बने हैं। और अब अगर उठना है तो हमें अपने कर्मों को श्रेष्ठ बनाना है। और कर्मों को श्रेष्ठ बनाने का तरीका केवल मात्र यही है कि हम अपने संकल्प, स्मृति और वृत्ति को ठीक करें। लेकिन उसमें सबसे बड़ी बाधा वहाँ उपस्थित होती है, जहाँ हम किसी को शत्रु मान बैठते हैं। और जिस व्यक्ति ने जितने शत्रु बना रखे हैं, उतना उसका मन उनकी तरफ जायेगा। उससे मिला हुआ है, अरे इसके सामने बात मत करना यह सब उसको बतायेगा, फिर जो मेरे शत्रु का दोस्त होगा, उसे भी अपना शत्रु ही समझेंगे। संसार में लोग आमतौर से यही मानकर चलते हैं। तो शत्रुपन की अगर हमारे मन में वृत्ति होगी तो हम योगी कैसे बनेंगे?
हम कहते हैं हमारी बिन्दुरूप स्थिति हो, हमारी बीजरूप अवस्था हो उसमें अगर शत्रुपन का भाव मन में घुसा हुआ होगा तो बिन्दु के साथ और चीज़ें मिल जायेंगी। तो मन में आज से यह संकल्प कीजिए कि प्यारे बाबा – इस दुनिया में मेरा कोई शत्रु नहीं है। मेरे मन में किसी के प्रति भी शत्रुता का भाव न हो। बाबा ने कह दिया हमारे शत्रु हमारे पांच विकार हैं, इनसे हमारी लड़ाई है। किसी मनुष्य से या किसी व्यक्ति से हमारी लड़ाई नहीं है, हमारा क्या लेना-देना है। अगर कोई अपने स्वभाव-संस्कारों से कुछ करता भी है तो जो जैसा करेगा सो पायेगा। आप चिंता क्यों करते हो? जो गलत काम करता है, आप उसके लिए क्यों सोचते हो? कोई बुराई कर रहा है, खराबी में फंसा हुआ है आप दु:खी क्यों होते हो? अगर हम मानते हैं कि जो योगी, पवित्र लोग हैं, भगवान के बने हैं, उनकी आज्ञा पर चलते हैं, उनकी दुआ काम करती है- तो अगर दुआ होती है तो बद्दुआ भी होती होगी, अगर मन में किसी के लिए बुरा सोचते हैं तो बद्दुआ भी होती होगी। मन में अगर आता है कि इसने हमें बहुत दु:खी कर रखा है, हम इससे बहुत परेशान हैं, इस व्यक्ति ने हमारे जीवन में बहुत कलेश पैदा किया हुआ है। उसके प्रति उसकी वह भावना निकलती होगी तो बद्दुआ भी तो निकलती होगी। दुर्वासा ऋषि भी तो होंगे।
अगर हम किसी को शत्रु मान लेंगे तो हमारे मन में सद्भावना के बजाय दुर्भावना भी आ जायेगी। अगर दो-चार व्यक्ति भी उसके बारे में ऐसा सोचें तो वह घातक होगा। आदमी किसी को तलवार भी मारता है तो सबसे पहले मन में सोचता है कि इसको तलवार मारूं, क्योंकि बहुत से महान व्यक्तियों ने कहा है जब आप मन में सोच लेते हैं कि यह बुरा काम हम करें, तो वह बुरा काम तो हो ही गया। सिर्फ एक कदम का फासला रहा। अगर आपको मौका मिलता या रूकावट देखने में नहीं आती तो आप कर ही डालते। इसका मतलब मन से सोचना भी आधा करने के बराबर हुआ। तो अगर हम किसी के प्रति शत्रु भाव रखेंगे और पाप करते रहेंगे, उसको दु:ख देने के संकल्प करते रहेंगे तो बाबा के महावाक्यों अनुसार दु:ख देंगे तो दु:खी होके मरेंगे। अगर हम दु:खी हैं या हमारे मन में किसी को दु:ख देने का चिंतन चलता है तो योगी बनने का क्या फायदा हुआ? हम योग की कमाई से, योग की थोड़ी बहुत जो शक्ति अर्जित करते हैं, उस शक्ति से किसी को घाव करने पर तुले हुए तो नहीं हैं? यह जो शत्रुता का, वैर का भाव है, घृणा का भाव है, ईर्ष्या-द्वेष का भाव है, किसी के प्रति कटुता का भाव है, यह सबसे बड़ा खराब भाव है। ऐसा मन में भाव होगा तो आप कभी भी योग में टिक नहीं सकते क्योंकि मन रूपी सिंहासन पर एक ही राजा बैठ सकता है। एक नगरी का एक ही राजा होता है। चाहे आप इस मन रूपी सिंहासन पर शिवबाबा को बिठा दीजिए, चाहे शत्रु को बिठा दीजिए। जैसे ही आप किसी व्यक्ति के प्रति घृणा-द्वेष का भाव, शत्रुता का भाव करेंगे शिवबाबा भाग जायेगा। क्योंकि एक म्यान में दो तलवारें इकट्ठी नहीं आतीं। और अगर आपने शिवबाबा को बिठाया तो शत्रु भाव आ नहीं सकता क्योंकि बाबा ने कहा हुआ है- बाबा-बाबा कहोगे तो माया भाग जायेगी।
योगी व्यक्ति अगर परमात्मा से योग लगाना चाहता है उसका मन का मीत वही है। और अगर उसकी बजाए वह यह समझता है कि फलां ने मुझे तंग किया है, फलां ने परेशान किया है, फलां दु:खी करता है, फलां व्यक्ति खराब है तो कहा गया है- आत्मा अपना मित्र आप है, आत्मा अपना शत्रु भी आप ही है। तो हम स्वयं से स्वयं ही शत्रुता कर रहे हैं, हमारे से कोई और नहीं कर रहा है। इसलिए सबसे पहले हमारे योगी जीवन में सबके प्रति शुभ भावना और शुभ कामना रहे। जब तक हमारे मन में शुभ भाव नहीं है, तब तक वह योगी ही नहीं है।

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