मुख पृष्ठब्र.कु. उषाकर्म बंधनों को खत्म कैसे करेंं

कर्म बंधनों को खत्म कैसे करेंं

आत्म अभिमानी या देही अभिमानी उसको नहीं कहा जाता कि हम रटते रहें कि मैं आत्मा हूँ, मैं आत्मा हूँ, रटने का नहीं है लेकिन उसका स्वरूप बनना और स्वरूप बनने का मतलब है कि आत्मा के सातों गुण, उसकी ऊर्जा नैचुरल रूप में हमारे इन्द्रियों के द्वारा हमारे कर्म में प्रवाहित होने लगे।

ईश्वरीय परिवार के अंदर ही हमारा एक-दूसरे से कार्मिक संबंध जुड़ता है। इसलिए हमें कर्मयोगी, ये परिवार बनाता है। बाकी अगर परिवार न हो खाली ईश्वर से ही प्यार हो तो वो योगी तो दुनिया में भी कई हैं। लेकिन बाबा ने हम बच्चों को एक ऐसे मीठे संबंध में बांधा कि ये बेहद का परिवार, बेहद के बाप का परिवार ये हमारा परिवार है। इसलिए ये स्वाभाविक रीति से हम कर्मयोगी बनने लगते हैं। आज अगर दुनिया के अंदर देखें तो मनुष्य के कर्म बंधन बनते जा रहे हैं और उसको बोझ का अनुभव करा रहे हैं। अनेक प्रकार के बोझ से बोझिल होते जा रहे हैं। ये बंधन कैसे बनता है ये भी हमें पता चल गया। तो जितना व्यक्ति देह अभिमान, देह अहंकार, या देहभान के वशीभूत होकर कर्म करता है उतना ही ये बंधन बनता जाता है।
दूसरा, जितना व्यक्ति के अन्दर स्वार्थ भाव प्रगट होता है उतना वो बंधन क्रियेट करता है।
तीसरा, जब कर्मेन्द्रिय की अधीनता आ जाती है, गुलाम हो जाते हैं इन्द्रियों के और आसक्ति वश कर्म करते हैं तो ये कर्म बंधन बनता है।
चौथी बात, किस रूप से हमने बंधन क्रियेट किये? जब दोष दृष्टि, वृत्ति होती है तब हमारे कर्म बंधन बनते हैं। दोष दृष्टि, वृत्ति यानी जिसको भी देखते हैं हर इंसान के अन्दर विशेषता भी है तो कमज़ोरियां भी हैं। हरेक के अन्दर अच्छाई भी है, बुराई भी है लेकिन जब हमारी दृष्टि, वृत्ति के अन्दर दोष प्रगट होने लगते हैं ये व्यक्ति ऐसा है, ये व्यक्ति ऐसा करता है, उसके दोष के तरफ ही हमारी दृष्टि और वृत्ति हमेशा जाती रहे तो ये कर्म बंधन क्रियेट करता है। तो कर्म बंधन अनेक बना दिए हमने। विकारों के वशीभूत होकर कर्म करना ये बंधन क्रियेट करता ही है। लेकिन ये सब बातें भी सूक्ष्म में हमारे बंधन क्रियेट करते गये। अब उससे मुक्त होकर हमें कर्मयोगी बनना है। तो उसकी विधि क्या है?
पहली विधि जो कहा देह अभिमान, देह भान और देह अहंकार को खत्म करने की जो बाबा ने बताई। वो बताई कि बच्चे तुम आत्मा हो। ये देह नहीं हो। और ये जागृति आते ही आत्म स्थिति, आत्म मनोस्थिति जितनी हमारी बनती गई, आत्मिक भाव जितना हमारा डेवलप होता गया, विकसित होता गया। हरेक को आत्मिक दृष्टि से हमने देखना आरंभ किया तो धीरे-धीरे वो दोष दृष्टि परिवर्तन हो गई और विशेषता भी नज़र आने लगी कि हाँ इसमें ये भी अच्छाई है, ये भी अच्छाई है।
तो इसीलिए हमारी जब ये दृष्टि, वृत्ति परिवर्तन हुई तो देही अभिमानी बनना हमारे लिए आसान हो गया। देही अभिमानी माना आत्मा के सातों गुणों के स्वरूप बनकर, उसमें स्थित होकर कर्म करना। आत्म अभिमानी या देही अभिमानी उसको नहीं कहा जाता कि हम रटते रहें कि मैं आत्मा हूँ, मैं आत्मा हूँ, रटने का नहीं है लेकिन उसका स्वरूप बनना और स्वरूप बनने का मतलब है कि आत्मा के सातों गुण, उसकी ऊर्जा नैचुरल रूप में हमारे इन्द्रियों के द्वारा हमारे कर्म में प्रवाहित होने लगे। सहजता से, शांति से, प्रेम से, सुख स्वरूप होकर, दूसरों को भी सुख देने के भाव से जब ये ऊर्जा हमारे हर कर्म में प्रवाहित होने लगती है तो कहा जाता है कि हाँ देही अभिमानी होकर हम कर्म कर रहे हैं तो वहाँ ये मैंपन, देह अभिमान वाला धीरे-धीरे क्षीण होने लगता है। और आत्म स्थिति हमारी पॉवरफुल होने लगती है, मजबूत होने लगती है।
दूसरा, मैंपन को खत्म करने की विधि जो बाबा ने बताई- एक तो आत्म अभिमानी होना, दूसरा जो बाबा कहते हैं कि करनकरावनहार करा रहा है मैं निमित्त हूँ। इस भावना को जागृत करना। और हर वक्त ये इमर्ज रूप में रहे कि करनकरावनहार बाबा करा रहा है। और मैं निमित्त हूँ तो वो मैंपन समाप्त होने लगता है।
तीसरी विधि है मैंपन को खत्म करने की जो बाबा कहते हैं कि बच्चे स्वमान में स्थित हो जाओ। रोज़ सुबह कोई न कोई स्वमान स्वयं के अन्दर जागृत करो और उस स्वमान में स्थित होकर हर कर्म करो। तब वो कर्म बंधन नहीं बनेगा। लेकिन वो संबंध बनने लगेगा और उस संबंध में आकर हम कर्म करेंगे। तो उस मैंपन को खत्म करने की ये तीन विधि हैं। देही अभिमानी बनना, दूसरा, करनकरावनहार बाबा करा रहा है, और तीसरा स्वमान में स्थित होकर कर्म करना। ये धीरे-धीरे उस मैंपन को एकदम क्षीण कर देगा।

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