मन की बातें – राजयोगी ब्र.कु. सूरज भाई

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प्रश्न : मेरा नाम रामनारायण नेमा है। मैं बरेली से हूँ। गीता का भगवान आप लोग हमेशा जब दिखाते हैं तो ये दिखाते हैं कि गीता ज्ञान दाता परमात्म शिव हैं, श्रीकृष्ण नहीं हैं। श्रीकृष्ण तो उनकी रचना हैं। क्या आप इस बात को थोड़ा स्पष्ट कर सकते हैं, इतनी बड़ी बात आप लोग कैसे कहते हैं?
उत्तर : प्राचीनकाल से, लम्बेकाल से ये मान्यता रही है कि बिल्कुल ये पौराणिकता है कि महाभारत के युद्ध में अर्जुन जब मोह ग्रस्त हो गये तो उनको श्रीकृष्ण ने गीता का ज्ञान दिया और वो ही गीता का ज्ञान आजतक प्रचलित है। यद्धपि आज गीता को पढऩे वाले नाममात्र के लोग रहे हैं। विद्यार्थियों से जब पूछा जाता है कि गीता ज्ञान किसने दिया तो एक-दूसरे को देखने लगते हैं कि गीता क्या बला है! तो आज तो स्थिति कुछ अधिक नीचे उतर चुकी है कि गीता पुस्तिका जो कभी 25 पैसे की मिलती थी अब भी बहुत सस्ती मिलती है। वो किसी के घरों में नहीं होती है। लोग ये मानते हैं कि गीता अगर बच्चों ने पढ़ ली तो वो सन्यासी बन जायेंगे। लेकिन गीता एक बहुत सुन्दर शास्त्र है। बहुत ही गुह्य फिलॉसफी लिए हुए है। इसलिए इसको सर्वशास्त्र शिरोमणि भगवत गीता भी कहते हैं। क्योंकि सर्व शास्त्रों का सार है इसमें कि तुम कौन हो और मैं कौन हूँ। दोनों चीज़ें हैं इसमें कि तुम अब अपने को आत्मा निश्चय करके मेरे से बुद्धियोग कैसे जोड़ो। निष्काम कर्म कैसे करो। त्याग, सन्यास सबकी गुह्य व्याख्यायें हैं समर्पणता आदि की।
जो भी अध्यात्म के मूल सूत्र हैं वो सब श्रीमद्भगवत् गीता में बहुत सुन्दरता से चर्चित किए गए हैं। लेकिन समय के अंतराल में लोग इसको भूलते गए और लोगों ने इसे सन्यास का शास्त्र समझ लिया। लेकिन वास्तव में ये सभी गृहस्थियों के लिए है। और बहुत सुन्दर इसमें सीख है। आजतक तो हम यही मानते आ रहे थे लेकिन अब जब भगवान इस धरा पर आये तो उन्होंने ये बात स्पष्ट की कि ज्ञान का सागर एक मैं हूँ निराकार परमात्मा। मैंने ही कल्प के आदि में सत्य गीता ज्ञान दिया था परंतु द्वापरयुग से मुझे सब भूल गये, निराकार की कोई स्मृति नहीं रही। तो जो साकार देवता है, जो सर्वश्रेष्ठ है, जिसे नेक्स्ट टू गॉड कहते हैं, तो लोगों ने देखा कि गीता ज्ञान बहुत सुन्दर है इसका राइटर तो कोई है नहीं, दिख नहीं रहा तो श्रीकृष्ण को उससे जोड़ा, कि श्रीकृष्ण ने युद्ध के मैदान में इस तरह गीता ज्ञान दिया। तो हम लोग उसी आधार पर ये बात कहते हैं कि परमात्मा जो निराकार है वही ज्ञान का सागर है। उसने ही गीता ज्ञान दिया था। बाद में गीता ज्ञान में कई मिलावटें होती रहीं। सोचने की बात है, मैं आप सभी को ज़रा-सा चिंतन देना चाहता हूँ। पहला तो ये कि युद्ध के कोलाहल में इतना सुन्दर ज्ञान देने का वातावरण होता है, जब चारों ओर सेनायें तैयार हों लडऩे के लिए? बस शंख बजने ही वाले हों और लोगों के मन भी उसी तरह की स्थिति में आ गये हों? ज्ञान देने के लिए तो बहुत पीसफुल जगह चाहिए। वो भी गीता जैसा ज्ञान जिसको सुनने वाला भी बहुत योग्य पात्र हो, इस पर विचार करें।

प्रश्न : उस समय जैसे कहा जाता है कि भगवान ने समय को रोक दिया था। और सभी लोग शांति से खड़े हुए थे और युद्ध का कोलाहल उस समय नहीं था। क्या उस समय संभावना नहीं थी कि ज्ञान दे दिया जाये?
उत्तर : भगवान के बारे में तो लोग कुछ भी कह सकते हैं कि समय को रोक दिया था। वो युद्ध को भी रोक सकते थे। फिर तो इन सब चीज़ों की ज़रूरत ही नहीं थी। समय ऐसी चीज़ है जिसको रोका नहीं जाता। समय की गति तो बिल्कुल आबाद रूप से निरंतर चल ही रही है, उसको रोकने की बात नहीं है। क्योंकि जिस व्यक्ति को ज्ञान दिया जा रहा है उसको ऐसा फील हो सकता है कि चार घंटे ज्ञान दिया तो ऐसा लगेगा कि जैसे आधा घंटा ही दिया गया हो। उसको समय की अविद्या हो सकती है। इसको समय की अविद्या कहते हैं। लेकिन हम देखें समय के दोनों ओर सेनायें खड़ी हैं और दुर्योधन युद्ध के लिए आतुर है तो चार-पांच घंटे में गीता ज्ञान दिया जाना, उनके मन तो शांत नहीं थे ना! उधर पांडवों में भी भीम जैसे जो बिल्कुल उत्तेजित थे क्या कर रहा है अर्जुन बीच में खड़ा हुआ? ज़रूर वो सोच रहे होंगे ना। तो उनके मन तो उत्तेजित थे ना, उनके मन शांत नहीं थे। इसलिए उनके लिए तो एक-एक क्षण लम्बा होता जा रहा था। तो एक तो इस बात पर विचार करना है।
दूसरी बात, मुझे ऐसा लगता है कि संदर्भ जोड़ा गया है गीता ज्ञान को आगे बढ़ाने के लिए, जैसे कोई पिक्चर की कहानी लिखी जाती है, लिंक सहित लिखी जाती है। अर्जुन को मोह हो गया। सोचने की बात है, जिसने लम्बे काल से युद्ध की तैयारी की हो, जो अपने राज्य को लेने के लिए युद्ध कर रहे हों, जिनको कोरवों ने बड़ा कष्ट दिया हो, भले ही उसमें भीष्म, द्रौणाचार्य उनके अपने हैं लेकिन वो भी उनको कष्ट देने में शामिल थे। द्रौणाचार्य ने भी तो कभी आवाज़ नहीं उठाई ना! भीष्म ने भी तो कभी आवाज़ नहीं उठाई थी ना कौरवों के विरुद्ध कि तुम सब ये अन्याय कर रहे हो। उनके प्रति मोह हो गया, चलो उनके प्रति मोह हो भी जाये उनको छोड़ के और सब हैं ना जिनसे युद्ध किया जाये। तो इसमें मोह की बात नहीं। और एक सैनिक जो सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हो, युद्ध सामने हो उसको मोह हो ही नहीं सकता। उनको तो सब याद आ रहा था कि द्रौपदी का चिर हरण किया गया था। हमें वनवास दिया गया था। हमारा इन्द्रप्रस्थ छीन लिया गया था, हमें अपमानित किया गया था। वो सब उन्हें याद आ रहा था। उनका तो खून खौल रहा था। मोह की वहाँ बात ही नहीं थी। इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि ये प्रसंग जोड़ा गया है। अगर केवल मोह को संतुष्ट करने के लिए ज्ञान दिया होता तो दूसरा अध्याय ही प्रयाप्त था। तुम आत्मा हो, ये सब आत्मायें हैं। न ये कभी मरते, न तुम किसी को मार रहे हो। दूसरे अध्याय के बाद वो ज्ञान समाप्त हो जाता। लेकिन योग की, सन्यास की, कर्म की, निष्काम कर्म की, कल्प वृक्ष की, सृष्टि चक्र की, सुव्याख्या की वहाँ ज़रूरत नहीं थी। इसलिए जो हमारे दर्शक, चिंतक हैं वो अच्छी तरह विचार करें कि गीता ज्ञान इस तरह नहीं दिया जा सकता कि दिन में चार घंटे दिया और पूर्ण हो गया। गीता ज्ञान एक लम्बे समय तक स्वयं परमात्मा ने दिया। और केवल ज्ञान देकर छोड़ नहीं दिया, ज्ञान की एक-एक बात जीवन में धारण हो इसका पुरूषार्थ कराया, योग-साधनायें कराई। ताकि आत्मायें पावन बन जायें। तो भगवान ने स्वयं आकर कहा न युद्ध के मैदान में, न द्वापर के अंत में बल्कि कल्प के अंत में जब सृष्टि तमोप्रधान हो गई थी तो मैंने स्वयं आकर ये गीता ज्ञान दिया था। और गीता ज्ञान देकर, तुम सभी को राजयोग सीखा कर, पतित से पावन बनाया था। मनुष्य से देवता बनाया था और ये युग परिवर्तन हुआ था। इसमें बहुत सारी बातें हैं विस्तार की तो अभी हम उसपर नहीं जायेंगे। पर ये सत्य बात परमात्मा ने सिखाई।

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