हमारे संस्कार हमारी एक्टिविटी, दृष्टि और शब्दों को प्रभावित करते…

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हमें योग के गहरे अनुभव तब तक नहीं होंगे जब तक हम उन सूक्ष्म छिपे हुए भावों को, जो जन्म-जन्मान्तर के संस्कार हमारी वृत्ति-दृष्टि को प्रभावित कर रहे हैं, जिनका हमारी स्मृति से बहुत गहरा कनेक्शन है, उनकी चेकिंग नहीं है तो वह हमें गहरे अनुभव नहीं करने देते।

जब हम योग के गहराई की बात करते हैं तो उसके साथ-साथ योग की लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई का भी संबंध है। योग की गहराई अर्थात् उसका डीप अनुभव। ऐसा अनुभव जिससे हम लाइट-माइट के स्वरूप बन जाएं या कम से कम हमारी फरिश्ता स्टेज हो। लेकिन लम्बाई का संबंध है निरन्तर योग से। कितने समय से लगातार निरन्तर योग चला आ रहा है, वह भी देखना है। अगर हमारा योग निरन्तर नहीं होगा, बीच में टूटता रहेगा या बीच-बीच में गैप होगा तो योग की गहराई का अनुभव, जो हमें करना चाहिए, वह नहीं हो सकेगा। इसलिए बाबा कहते हैं कि कम से कम 8 घंटा योग हो। तो इसके लिए हमें योग की लम्बाई का ख्याल रखना चाहिए। योग की चौड़ाई अर्थात् सर्व संबंध हमारे एक बाप से हों। यह जैसे योग की विशालता है। योग का अर्थ ही है आत्मा का, पिता परमात्मा से कनेक्शन। वह कनेक्शन सर्व संबंधों का एक के साथ हो। यही योग की चौड़ाई है। अगर हमारी रग और कहीं भी जुटी हुई है तो हम योग के गहरे अनुभव नहीं कर सकते। हम योग के गहरे अनुभव तभी कर सकते हैं जब हमारे संकल्प ऊंचे हों, महान हों। अगर हमें बार-बार निगेटिव विचार आते हैं तो योग में विघ्न पड़ता रहेगा और योग की गहराई का अनुभव नहीं होगा। अभी-अभी अनुभव करेंगे, अभी-अभी विघ्न पडऩे से पहले वाली स्थिति में आ जायेंगे तो योग की ऊंचाई का अनुभव नहीं कर सकेंगे। इसलिए हमारे विचार विशाल, ऊंचे, दूरदेशी होने चाहिए। तो योग की स्थिति बनाने के लिए सर्व संबंध सबसे तोडक़र एक से जोड़ें। विचार अच्छे चलते रहें, निरन्तर योग जुटा रहे।
योग अर्थात् हमारी कॉन्शियस क्या है? एक है कॉन्शियसनेस अर्थात् चेतन, दूसरा है अभिचेतन अर्थात् सब कॉन्शियसनेस। जिसको हम कह देते हैं कि हमारा यह भाव नहीं था। शब्दों से अगर कोई दूसरी बात समझ लेता है तो हम कहते हैं हमारा यह भाव नहीं था। अन्दर से हमारे संस्कार हमारी एक्टिविटी को प्रभावित करते हैं, जिसका हमें भी ध्यान नहीं रहता है। हमारे संस्कार, हमारी दृष्टि, वृत्ति और एक्टिविटी को प्रभावित करते हैं।
हमारा योग लगातार लगा रहे, टूटे नहीं, हमारे विचार भी अच्छे हों और सर्व संबंध भी हमारे शिवबाबा से हों- यह हम सभी चाहते हैं लेकिन कारण क्या है जो यह स्थिति हमारी बन नहीं पाती है या थोड़ा टाइम बन पाती है और बीच में ऐसा विघ्न पड़ जाता है जो डिग्री, दो डिग्री या अपने-अपने अनुसार हम नीचे आ जाते हैं। योग का सारा पुरूषार्थ इसी बात पर निर्भर है कि हमारी जो चेतना है, वह क्या है? हमारी जो चेतना का स्तर है, जो हमारी अवेयरनेस है वह शिवबाबा की है या देहधारियों की है या वस्तुओं की है या पदार्थों की है। चेतना को हम दो भागों में बांट सकते हैं। एक- अभिचेतन, दूसरा, चेतन। अभिचेतन का अर्थ है- सूक्ष्म, जिसके लिए हम कह देते हैं- मेरा भाव ऐसे नहीं था, कई दफा हम कहते हैं कि हमारे अन्दर में यह बात नहीं थी, शब्दों से आपने गलत ले लिया। इसे ही हम संस्कार भी कहते हैं। अन्दर में हमारे जो संस्कार हैं वह हमारी एक्टिविटी को, दृष्टि को, शब्दों को प्रभावित करते हैं। लेकिन हम उसके बारे में स्वयं सतर्क नहीं होते कि हमारा सूक्ष्म में भाव कुछ और था। तो संस्कार को हम अभिचेतन कहते हैं। जिसके बारे में हम पूरे जागृत नहीं होते। योग से उसका गहरा संबंध है। हमें योग के गहरे अनुभव तब तक नहीं होंगे जब तक हम उन सूक्ष्म छिपे हुए भावों को, जो जन्म-जन्मान्तर के संस्कार हमारी वृत्ति-दृष्टि को प्रभावित कर रहे हैं, जिनका हमारी स्मृति से बहुत गहरा कनेक्शन है, उनकी चेकिंग नहीं है तो वह हमें गहरे अनुभव नहीं करने देते। जो चेतन है, जिसकी कॉन्शियस है उसकी चेकिंग तो है ही, उसमें चेकिंग करने की व अटेन्शन देने की बात ही नहीं लेकिन जो सूक्ष्म है, संस्कार रूप में है उसकी चेकिंग चाहिए। पुरूषार्थ में दो बातें कही जाती हैं- एक अटेन्शन दो, दूसरा चेकिंग करो। हम अटेन्शन उस बात पर दें, जो कॉन्शियसनेस है और जो सबकॉन्शियस माइंड है, संस्कार हैं, जो छिपे हुए हमारे भाव हैं, जो हमारी वृत्ति-दृष्टि को प्रभावित करते हैं उनकी चेकिंग करने की ज़रूरत है।

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