मुख पृष्ठब्र.कु. अनुजसाधना कैसे हो…!

साधना कैसे हो…!

आनंद की अवस्था का एकमात्र आधार है, वो है अपने सत्य स्वरूप के साथ जीना। चाहे वो मन्सा हो, वाचा हो, कर्मणा हो।

एक सच्ची घटना से शुरू करते हैं इस बात को कि अभी-अभी किसी से बात हो रही थी। तो उन्होंने एक बात सुनाई कि वो दस से पंद्रह दिन के लिए किसी स्थान पर गये थे और वहाँ पर कम्पलीट, सम्पूर्ण मौन में रहना होता है। कोई भी बातचीत नहीं। आपका मोबाइल फोन, आपका लैपटॉप आपका सबकुछ ले लिया जाता है। और आपको बिल्कुल अपने आपसे जोडऩे की कोशिश की जाती है। ऐसा उन्होंने बताया। कहते हैं कि तीन से चार दिन तक हमारे अन्दर कोई भाव ही नहीं जगा। परेशानी बढ़ती चली गई। लेकिन कुछ दिन बाद जब थोड़ा मन, क्योंकि जब कुछ भी ऐसा करने को नहीं था तो धीरे-धीरे मेरा मन लगना शुरू हुआ इन सब बातों में। और जब उस अवस्था तक आये तो देखा साक्षी होकर कि मैं और आप, या इस दुनिया में कोई भी साधना क्यों नहीं कर पा रहा। तो इस बात की थोड़ा डिटेल समझने की कोशिश करते हैं।
आत्मा को कहा जाता है सत्-चित्त-आनंद स्वरूप। शब्द को पकडऩा है हमें। सत्-चित्त-आनंद स्वरूप अगर मेरा स्वरूप है, अगर चित्त हमारा सत्य है तो आनंदित है। अगर मेरा चित्त पूरी तरह से सत्य नहीं है तो आनंद की अनुभूति हो नहीं सकती। अब इसके लिए कोई जंगल या कोई ऐसा स्थान जहाँ प्राकृतिक वातावरण हो, शांति हो, वहाँ हम चले भी जायें लेकिन अगर हम सत्य नहीं हैं तो आनंदित हो नहीं सकते।
सत्य का अर्थ सीधा समझते हैं कि अगर मेरे अन्दर एक प्रतिशत भी थोड़ा-सा नाम मात्र भी किसी के प्रति कोई भाव है नकारात्मक, या हम दिन में एक भी झूठ बोलते हैं या थोड़ी बहुत बातों में हमारी जो स्थिति है उस स्थिति के आधार से किसी से बात नहीं करते हैं बल्कि बनावटी तरीके से मिलते हैं, जुलते हैं, बात करते हैं तो ये सारी चीज़ें हमारे आनंद को लेकर चली जाती है। इसीलिए कहा जाता है कि कोई इंटेंशली ये काम नहीं करता होता तो आज वो हर पल ऋषि का जीवन जी रहा होता। तो ऋषि का जीवन यही है कि नाम मात्र भी कोई भी देश, राज्य, भाषा, भेद या कोई भी ऐसी भावना, दुर्भावना जो हमारे अन्दर है- ईर्ष्या, द्वेष, नफरत, अगर ये नाम मात्र भी हैं तो जीवन भर हम कभी आनंदित नहीं रह सकते। क्योंकि कहा जाता है कि मैकेनिकली या जो हमारे अन्दर बुद्धि में बहुत सारी बातें फीड हैं उसको हम एक्यूरेट सुना भी देते हैं। सुना क्यों देते हैं, क्योंकि गाड़ी आपने सीखा, कोई ड्राइवर ले लो। भले वो ड्राइव अच्छा करता है लेकिन कोई ज़रूरी नहीं कि वो स्पीकर भी अच्छा हो। कि मैं बहुत अच्छा बोल भी लेता हूँ। लेकिन ड्राइविंग फोर्स नैचुरल उसने सीखते-सीखते उसको डेवलप कर लिया।
ऐसे ही कोई बहुत अच्छा सबकुछ कर रहा है तो कोई ज़रूरी नहीं है कि उसके अन्दर उस बात की गुह्यता भी है, सच्चाई भी है। अगर ऐसा होता तो व्यक्ति कभी भी इस बात को लेकर परेशान नहीं होता कि मैंने बोला तो इतना कुछ, सोचा भी इतना कुछ लेकिन मेरे अन्दर खुशी और शांति बढ़ क्यों नहीं रही है! तो न बढऩे का एकमात्र कारण है जो एक्यूरेसी होती है, एक्यूरेसी का अर्थ यहाँ यही है कि जो आत्मा का मूल स्वभाव है, गुण है वो है सत्यता। अब चित्त की सत्यता जितनी कम उतना हम सबके आनंद में कमी है। तो साधना कैसे होगी? एक छोटा-सा झूठ बोल के हम ज़रा योग लगा कर दिखायें। परमात्मा से जुड़ के दिखायें। एक छोटा-सा जो मैं नहीं करता हूँ वो कर रहा हूँ और बताऊं कि मैं सबकुछ कर रहा हूँ। तो आनंद कहाँ चला जा रहा है मेरा! इसलिए आनंद की अवस्था का एकमात्र आधार है, वो है अपने सत्य स्वरूप के साथ जीना। चाहे वो मन्सा हो, वाचा हो, कर्मणा हो। और इसपर रोज़ परमात्मा हमको सब सिखाते हैं कि आनंद कहाँ चला गया, आनंद चला गया हम सबके ऑरिज़नल न होने की वजह से। मूल स्वभाव में न आने की वजह से। चारों तरफ के वातावरण में बह जाने की वजह से। तो ये सारी चीज़ें जब हमारे जीवन से चली जाती हैं ना तभी हमारा आनंद भी चला जाता है। अगर साधना को सही करना है, परमात्मा से सही रूप से प्राप्ति करनी है। तो सर्व प्रथम, सबसे पहले अपने सत्य स्वरूप माना एक प्रतिशत भी, ज़ीरो प्रतिशत भी किसी के लिए भी गलत भावना न हो। न खुद के लिए, न औरों के लिए। तब देखो आपकी साधना नैचुरल और न्यूट्रल होगी। और परमात्मा निरंतर आपको याद आते रहेंगे।

RELATED ARTICLES

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

Most Popular

Recent Comments