कहते हैं मनुष्य सब प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ है। क्योंकि उसके पास सोचने, समझने की शक्ति विकसित है। क्योंकि उसके पास मन की शक्ति है। मन से वह मनुष्य बना है। वैसे तो हरेक प्राणियों में मन है ज़रूर लेकिन पूर्णत: विकसित नहीं है। मन को सही मायने में पहचान लिया जाये, उसकी शक्ति के परचम से पूर्णत: परिचित हो जाये तो वो महान बन जाता है। क्रमाइंड इज़ पॉवरञ्ज ये हम सब सुनते रहते हैं। दूसरा माइंड मैंनेजमेंट भी हम सुनते हैं। मन को अगर श्रेष्ठ लक्ष्य और उद्देश्य की दिशा में मोड़ दिया जाये तो वह महान कर्तव्य कर सम्पूर्ण मानवता के लिए एक वरदान बन जाता है।
कोई भी कार्य को क्रियान्वित करने के लिए शक्ति चाहिए, ज्ञान चाहिए, प्रॉपर विधि चाहिए और समयबद्धता भी चाहिए। तभी हम महान लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। जैसे ही हम लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ते हैं तो कई प्रकार के हर्डल्स भी आते हैं जो कि हमें पार करने होते हैं। उसे पार करने के लिए भी शक्ति का उपयोग करना होता है। जैसे कोई नदी के बहाव को सही दिशा न देने पर वो नुकसान करती है, अगर उसे नहर बनाकर दिशा दें तो वो सिंचाई करने हेतु कइयों के लिए उपयोगी हो सकती है। उसी तरह मन को भी लक्ष्य के साथ सही दिशा देने पर ही महान बनाया जा सकता है।
संकल्प सिर्फ करने तक ही न हो, संकल्प को समर्थ बनाने के लिए उसके प्रति समर्पण भी हो। जैसे दूध तपाया जाये तो मलाई और घी निकलता है। दूध, मलाई और घी, ये तीनों अलग हैं। हमें जो परमात्मा द्वारा लक्ष्य व ज्ञान मिलता है, वह दूध है। उसका मनन करने से मलाई निकलती है। अशुद्ध संकल्प उसमें मिक्स होता है तो दही बनता है। और मंथन करने से रहस्य रूपी मक्खन निकलता है। उसे उबालेंगे तो घी निकलेगा। उसी तरह कोई भी श्रेष्ठ संकल्प को करते हैं तो इस प्रोसेस को अपनाने पर ही महान बनते हैं। जैसे धातुएं तप कर रसायन और भस्म बनती हैं, हिमालय की बर्फ तपकर गंगा और जमुना बनती है, खारा सागर तपकर मीठे जल वाले बादल बन जाते हैं, तो महान बनने के लिए तपना होता है।
‘तप’ अर्थात् सुउद्देश्य के लिए उस हद तक बढ़ चलना जिनमें भौतिक कष्टों की हँसते-हँसते उपेक्षा कर सकें। जब हम महानता की ओर अग्रसर होते हैं तो कुछेक बातों पर हमें और ध्यान देना चाहिए। कई बार लिये हुए लक्ष्य से विहीन करने के लिए हमारे खुद के ही संकल्प बाधक बनते हैं। जैसे स्वयं का अहम, मान, सम्मान, पद, पोज़ीशन, हीनता, शारीरिक कष्ट आदि-आदि। जो हमें विजयी होने में रुकावटें पैदा करती हैं। और दूसरों की तरफ से व्यंग्य, उपहास, सहनशक्ति की कमी के कारण भी हम ढीले पड़ जाते हैं। सबसे बड़ी रुकावट तो हमारे ‘दूषित विचार’ हैं। कहते हैं मन मजबूत तो लक्ष्य हासिल होता है। मन से जीते जीत, मन से हारे हार। अपने आप से स्पष्ट, सशक्त और दृढ़ रहना ही विजय का मूल आधार होता है। कहीं पर भी कमज़ोरी अगर है तो वो दुर्गंध की तरह हमें पीछे धकेलती है। जैसे हाथी को पालतू बनाने में कितना झंझट करना पड़ता है। शेर को सर्कस में कर्तब दिखाने के लिए कितनी मेहनत करनी पड़ती है। उतनी ही मेहनत मन को कुमार्ग से हटाने में लगती है। फिर मन अच्छा बन जाता है। आप जो कहो वही करता है। अच्छा मन, विकार रहित मन जिसके पास हो, उसे संसार में किसी वस्तु की कमी नहीं रहती। उसे विश्वविजयी ही माना जाता है।